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न मालूम कितने जीवन ! मनोरंजन कर-करके ही तो तुम भटके हो सपने में। अब तो सपना तोड़ना है। लेकिन इतने झटके से भी नहीं तोड़ना है कि तुम दुश्मन हो जाओ, आहिस्ता आहिस्ता तोड़ना है; धीरे - धीरे तोड़ना है।
तुम्हें जगाना है। तुम्हें जगाना है तो यह बात ध्यान रखनी होगी, तुम्हारा ध्यान रखना होगा और जहां तुम्हें जगाना है, जिस परमलोक में तुम्हें उठाना है, उसका भी ध्यान रखना होगा।
जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तो तुमसे भी बोल रहा हूं और तुम्हारे पार भी बोल रहा हूं। जब मैं देखता हूं बात बहुत पार जाने लगी तो मुल्ला नसरुद्दीन को निमंत्रण कर लेता हूं। वह तुम्हारे जगत में तुम्हें खींच लाता है। तुम थोड़ा हंस लेते हो, तुम थोड़ा मनोरंजित हो जाते हो। जैसे ही मैंने देखा कि तुम हंस लिये, फिर आश्वस्त हो गये; फिर तुम्हें हिलाने लगता हूं। फिर तुम्हें ऊपर की तरफ ले जाने की बात कर रहा हूं। आकाश की बात करूंगा तो ही शायद तुम आंखें उठाकर आकाश की तरफ देखो। आकाश तुम्हारा है। तुम मालिक हो । और तुम जमीन पर आंखें गड़ाये चल रहे हो। जमीन पर आंखें गड़ी होने के कारण जगह-जगह टकराते हो, जगह-जगह गिरते हो। जमीन तुम्हारी है, . यह भी सच है। आकाश भी तुम्हारा है। तुम्हारी आंख जमीन में ही घिर कर समाप्त न हो जाये, इसलिए आकाश की बात करनी जरूरी है। तुम्हें ही देख कर आकाश की बात कर रहा हूं ।
निश्चित ही बहुत कुछ तुम्हारे सिर के ऊपर से बह जायेगा । जब सिर के ऊपर से कुछ बहता हो तभी कुछ संभावना है। अगर तुम्हें जो मैं कहूं पूरा-पूरा समझ में आ जाये तो व्यर्थ हो गया। उतना तो तुम समझते ही थे, मैंने तुम्हें कुछ बढ़ाया नहीं, कुछ जोड़ा नहीं । तुम्हारी समझ में बिलकुल न आये तो भी मेरा बोलना व्यर्थ गया; तुम्हारी समझ में पूरा आ जाये तो भी व्यर्थ गया। अगर बिलकुल समझ में न आये तो बोला न बोला बराबर हो गया। बिलकुल समझ में आ जाये तो बोलना व्यर्थ ही था, बोलने की कोई जरूरत ही न थी; उतनी तुम्हारी समझ पहले से ही थी।
तो मुझे कुछ इस ढंग से बोलना होगा कि कुछ-कुछ तुम्हारी समझ में आये और कुछ-कुछ तुम्हारी समझ में न आये। जो समझ में आ जाये उसके सहारे उसकी तरफ बढ़ने की कोशिश करना जो समझ में न आये। तो विकास होगा, अन्यथा विकास नहीं होगा ।
तुम तो चाहोगे कि मैं वही बोलूं जो तुम्हारी समझ में आ जाये। तो फिर तुम आगे कैसे बढ़ोगे थोड़ा- थोड़ा तुम्हें आगे सरकाना है। इंच-इंच तुम्हें आगे बढ़ाना है। यह भी मैं ध्यान रखता हूं कि तुम्हें बिलकुल भूल ही न जाऊं। ऐसा न हो कि मैं इतने आगे की बात कहने लग कि तुमसे उसका संबंध ही न जुड़ सके। तुमसे संबंध भी जुड़े और तुमसे पार भी जाती हो बात इस ढंग से ही बोलना होगा।
सदगुरु का यही अर्थ है : तुमसे कहता है, लेकिन तुम्हारी नहीं कहता। तुमसे कहता है और परमात्मा की कहता है। तो सदगुरु के पास थोड़ी अड़चन तो रहेगी। सदगुरु कोई तुम्हारा मनोरंजन नहीं कर रहा है, कि तुमसे कुछ बातें कह दीं, तुम्हें मजा आया, तुम्हें आनंद आया, तुम्हें रस मिला, तुम चले गये। तुमने कहा 'समय ठीक से कटा । और वही कहा जो मैं पहले से समझता हूं । तुम्हारी