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है, हाथ में लकड़ी लिये रहता है। फिर उसकी आंखें ठीक हो गयीं। अब वह लकड़ी फेंक देता है। वह लकड़ी विश्वास जैसी थी। उसके सहारे टटोल-टटोल कर चल लेता था। अब तो आंख हो गयी, अब लकड़ी की. कोई जरूरत नहीं है।
श्रद्धा को उपलब्ध व्यक्ति विश्वास को फेंक देता है। वह न हिंदू रह जाता, न मुसलमान, न ईसाई। अब तो आंख मिल गयी। अब तो प्रमाण की कोई जरूरत न रही। आंख काफी प्रमाण है। तुम, सूरज है, इसके लिए तो प्रमाण नहीं देते फिरते । न कोई खंडन करता है, न कोई मंडन करता है। न तो कोई कहता है कि मैं सूरज में मानता कोई कहता है कि मैं सूरज में नहीं मानता हूं। सूरज है, मानने न मानने की क्या बात? आंखें खुली हैं, तो सूरज दिखाई पड़ रहा है।
ऐसे ही जब भीतर की आंख खुलती है तो उसका नाम श्रद्धा है। श्रद्धा अंतस - चक्षु है। उस अंतस-चक्षु से जो दिखाई पड़ता है, वही परमात्मा है। तो श्रद्धा विश्वास नहीं है। श्रद्धा तो एक आत्मक्रांति है, विचार से मुक्ति प्रश्न से मुक्ति संदेह से मुक्ति जो है, उसके साथ राजी हो जाना, लयबद्ध हो जाना। और इसी अवस्था में साक्षी का बोध होगा।
अगर कर्ता बनना हो तो विचार की जरूरत है। विचारक बनना हो तो विचार की जरूरत है, क्योंकि विचार भी सूक्ष्म कृत्य है। साक्षी में कर्ता तो बनना नहीं, कुछ करना तो है नहीं। जो है, सिर्फ उसके साथ तरंगित होना है। जो है, उससे भिन्न नहीं; उसके साथ अभिन्न भाव से एक होना है। करने तो कुछ है नहीं साक्षी में सिर्फ जागने को है, देखने को है।
पूछा है, श्रद्धा और साक्षित्व में कोई आंतरिक संबंध है?'
निश्चित ही। श्रद्धा द्वार है; साक्षी - मंदिर में विराजमान प्रतिमा । श्रद्धा के बिना कोई कभी साक्षी तक नहीं पहुंचा, न सत्य तक पहुंचा है। श्रद्धा के बिना तुम पंडित हो सकते हो, ज्ञानी नहीं। श्रद्धा के बिना तुम विश्वासी हो सकते हो, अनुभवी नहीं ।
दुनिया में दो तरह के भटकते हुए लोग हैं। एक जिनको हम नास्तिक कहते हैं, एक, जिनको हम आस्तिक कहते हैं। दोनों भटकते हैं। दोनों विश्वास से भरे हैं - एक पक्ष में, एक विपक्ष में। न नास्तिक को पता है कि ईश्वर है, न आस्तिक को पता है कि ईश्वर है।
इसलिए मैं धार्मिक को दोनों से अलग रखता हूं वह तो न नास्तिक है, न आस्तिक है। उसने तो धीरे- धीरे देखने की चेष्टा की । तुम्हारी धारणाओं की कोई जरूरत ही नहीं है देखने में। तुम्हारी धारणाएं बाधा बनती हैं, तुम्हारे पक्षपात अड़चन लाते हैं। तुम कुछ मान कर चल पड़ते हो उसके. कारण ही देखना शुद्ध नहीं रह जाता।
तुमने अगर पहले से ही मान लिया है तो तुम वैसा ही देख लोगे जैसा मान लिया है। बिना माने, बिना भरोसा किये, बिना विश्वास किये, बिना किसी धारणा में रस लगाये, जो खाली, शांत मौन देखता रह जाता है ......। जो है, उसे जानना है। अभी हमें उसका पता नहीं है तो मानें कैसे?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं. ईश्वर को कैसे मानें? मैं उनसे कहता हूं तुमसे मैं कहता तुम मानो। इतना तो मानते हो कि तुम हो? इसे कोई मानने की जरूरत ही नहीं है।