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तुम अपने जीवन में देखो, तुमने लाख उपाय किए कि बुरा छोड़े और अच्छा करें, फिर भी करते तुम बुरा हो ।
संत अगस्तीन ने कहा है कि हे प्रभु, जो मुझे करना चाहिए वह मैं कर नहीं पाता और जो मुझे नहीं करना चाहिए वही मैं करता हूं। और मैं जानता हूं भलीभांति कि क्या नहीं करना चाहिए फिर भी वही करता हूं। ऐसा भी नहीं कि मुझे पता नहीं है मुझे सब मालूम है कि ठीक क्या है, वही नहीं होता। और जो ठीक नहीं है, वही होता है।
हजारों साल के इस शिक्षण के बावजूद भी आदमी वैसा का वैसा है। थोड़ा सोचो। शायद अष्टावक्र के वचन में कोई मूल्य हो ।
अष्टावक्र कहते हैं. क्रांति घटित होती है-अच्छे-बुरे में चुनाव करके नहीं, अच्छे-बुरे दोनों के साक्षी हो जाने से। तुम्हें क्रोध आये तो क्रोध के साक्षी हो जाओ। एक प्रयोग करके देख लो। एक साल भर के लिए हिम्मत करके देख लो, श्रद्धा करके देख लो। एक साल भर के लिए क्रोध आये, साक्षी हो जाओ, रोको मत, दबाओ मत होने दो। और चोरी हो तो चोरी होने दो और साधुता हो तो साधुता होने दो। जो हो होने दो। और जो परिणाम हों, वे होने दो। और तुम शांत भाव से सब स्वीकार किए चले जाओ। साल भर में ही जैसे एक झरोखा खुल जायेगा। तुम अचानक पाओगे बुरा होना अ - आप धीरे -धीरे क्षीण हो गया और भला होना अपने-आप घिर हो गया। जैसे-जैसे तुम साक्षी हो जाते हो वैसे-वैसे बुरा अपने-आप विदा हो जाता है; क्योंकि बुरा होने के लिए साक्षी की मौजूदगी बाधा है: भला होने के लिए साक्षी की मौजूदगी खाद है, पोषण है।
तो यह मैं तुमसे आखिरी विरोधाभास कहूं : तुम अच्छा करना चाहते हो, नहीं हो पाता; तुम बुरे से छूटना चाहते हो, नहीं छूट पाते। क्योंकि तुम्हारी धारणा यह है कि तुम कर्ता हो, वहीं धारणा भूल हो रही है। साक्षी की धारणा कहती है : न तो तुम छोड़ो न तुम पकड़ो तुम सिर्फ जागे हुए देखते रहो। और एक अदभुत अनुभव आता है कि जागते-जागते बुरा छूटने लगता है और भला हो लगता है।
मेरी तो परिभाषा यही है : साक्षी- भाव से जो हो वही शुभ और साक्षी - भाव में जो न हो, वही अशुभ। ऐसा ही समझो कि अगर तुम मुझसे पूछो कि अंधेरा क्या है तो मैं कहूंगा : दीया जलाने पर जो न बचे वह अंधेरा और दीया न जलाने पर जो बचे, वह अंधेरा । दीये के जलते ही अंधेरा खो जाता है। कर्ता के मिटते ही बुरापन अपने आप खो जाता है। तुम्हारे हटाये न हटेगा, तुम्हारे हटाने तो मौलिक भूल मौजूद बनी है। आकाशवत हो जाओ!
एकस्मिन्नव्यये शाते चिदाकाशेउमले त्वयि । कुतो जन्म कुछ: कर्म कुतोग्हंकार एव च।।
हरि ओम तत्सत्!