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च एव अहकार कुतः ।
और अहंकार भी कैसा? मैं हूं यह भाव भी तभी हो सकता है जब 'तू' हो । जब दो नहीं हैं तो कैसा अहंकार ?
'तू एक निर्मल अविनाशी शांत चैतन्यरूप आकाश है। कहा जन्म, कहां कर्म, कहां अहंकार?' ऐसा जान कर ऐसा बोध को जगा कर, ऐसी श्रद्धा में डूब कर - समाधि उपलब्ध होती है। समाधि का अर्थ है : समाधान । समाधि का अर्थ है : गईं समस्यायें, खुल गया रहस्य । समाधि का अर्थ है. नहीं रहे प्रश्न, नहीं मिला उत्तर; खो गये प्रश्न। मिलन हो गया अस्तित्व से। क्योंकि उत्तर अगर न मिलें तो फिर नये प्रश्न खड़े हो जायेंगे। हर उत्तर से नये प्रश्नों के पत्ते लगते हैं। समाधि का अर्थ उत्तर नहीं है कि मिल गया तुम्हें उत्तर । समाधि का इतना ही अर्थ है कि सब प्रश्न गिर गये; प्रश्नों के साथ स्वभावत: सब उत्तर भी गिर गये। तुम निर्विकार हुए निर्विचार हुए न कोई प्रश्न है न कोई उत्तर है। ऐसा जीवन है। और ऐसे जीवन की सहज स्वीकृति है और साक्षी- भाव है।
जो हो रहा है बाहर, होने दो। चुनो मत । निर्णय मत लो। बुरा भला विभाजन मत करो। जो हो रहा है, तुम होने दो। तुम सिर्फ देखते रहो।
खयाल में आती है बात? तुम सिर्फ देखते रहो। हमारी सारी शिक्षा इसके विपरीत है। हमारी सारी शिक्षा कहती है : क्रोध हो तो दबाओं, रोको, क्रोध मत करो, क्रोध बुरा है। प्रेम हो तो प्रगट करो, बताओ, प्रेम अच्छा है। हमारी सारी शिक्षा विकल्प में चुनने की है, चुनाव करने की है।
इसलिए मेरे देखे, दुनिया में ब्राह्मण परंपरा की कोई बहुत गहरी छाप नहीं पड़ी, श्रमण परंपरा की गहरी छाप पड़ी । तुम चकित होओगे, क्योंकि श्रमण परंपरा को मानने वाले बहुत लोग नहीं हैं और ब्राह्मण परंपरा को मानने वाले बहुत लोग हैं- ईसाई हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, बड़ी संख्या है! फिर भी श्रमण परंपरा की संख्या ज्यादा नहीं है तो भी उसकी छाप बहुत गहरी पड़ी क्योंकि श्रमण परंपरा का तर्क मनुष्य की बुद्धि में जल्दी समझ में आता है।
भारत में जैनों की कोई संख्या नहीं है; लेकिन फिर भी तुम चकित होओगे कि जैनों का संस्कार भारत पर जितना गहरा है उतना हिंदुओं का नहीं है। महात्मा गांधी बात गीता की करते हैं, लेकिन व्याख्या पूरी जैन की है। बात गीता की है, लेकिन व्याख्या पूरे जैन की है, बात गीता की नहीं है। महात्मा गांधी नब्बे प्रतिशत जैन हैं, दस प्रतिशत हिंदू होंगे। कुछ आश्चर्य की बात है। क्यों ऐसा हुआ है? इसके पीछे कारण साफ है। जैन परंपरा या श्रमण परंपरा का तर्क बहुत स्पष्ट है गणित बहुत साफ है। और यह जगत गणित का है और तर्क का है। और यह बात समझ में आती है, सभी को समझ में आती है। राजनीतिक को भी समझ में आती है, धर्मगुरु को भी समझ में आती है, पुरोहित - पंडित को भी समझ में आती है कि बुरा छोडो, अच्छा करो। फिर भी बुरा छोड़ो, अच्छा करो - यह समझाते–समझाते हजारों सदियां बीत गईं, बुरा हो रहा है और अच्छा नहीं हो रहा है। यह बड़ी हैरानी की बात है। कोई धारणा इस बुरी तरह पराजित नहीं होती, लेकिन फिर भी हावी रहती है, बुरी तरह हार गई है!