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कल्पना किसकी, क्यों कर और कहां?'
'तुझ एक निर्मल अविनाशी शांत और चैतन्यरूप आकाश में कहां जन्म है, कहां कर्म है, कहां अहंकार है!' सुनो इस वचन को!
एकस्मिन्नव्यये शाते चिदाकाशेउमले त्वयि।
कुतो जन्म कुत: कर्म कुतोउहंकार एव च। एकस्मिन-तू एका क्योंकि एक ही है। कोई दवैत नहीं। तेरे एक में ही सब समाया हुआ है। और तू सब में समाया हुआ है। अमले और तू कभी भी मल को उपलब्ध नहीं हुआ। कभी तू दोषी नहीं हुआ। कभी तुझसे कुछ पाप नहीं हुआ। क्योंकि पाप हो नहीं सकता। क्योंकि तू कर्ता नहीं है तू केवल साक्षी है। तू तो दर्पण की तरह है। इसके सामने किसी ने किसी की हत्या कर दी तो दर्पण थोड़े ही पापी होता है; दर्पण को थोड़े ही अदालत में ले जाओगे कि इसके सामने हत्या हुई कि यह दर्पण भी पापी हो गया, कि यह दर्पण भी दूषित हो गया। जो हुआ है, वह प्रकृति में हुआ है। हत्या हुई साधु बने, असाधु बने-वह सब शरीर की प्रकृति है। और तुम्हारे भीतर जो चैतन्य का दर्पण है-अमलेयं- उसका कोई मल नहीं है। निर्मल है। अव्यये-अविनाशी है। शाते-शांत है। चिदाकाशे-चैतन्यरूप आकाश है। चिदाकाशे! यह पूरी की पूरी ब्राह्मणधारा का सार- भाव है-चिदाकाशे।
जन्म कुत:। कहा तो तेरा जन्म? हो ही नहीं सकता। शरीर ही जन्मता है और शरीर ही मरता है, तू तो न जन्मता है और न मरता है।
कर्म कुतः। और कर्म भी तुझसे नहीं हो सकता, तो कैसा अच्छा कर्म, कैसा बुरा कर्म? कैसा दुष्कर्म? कर्म तुझसे हो नहीं सकता।
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