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कुछ किरण थी। बहुत दूर की थी, शायद प्रतिफलन था। आकाश में चांद है और तुमने झील में उसकी छाया देखी थी, सिर्फ परछाईं देखी थी-लेकिन थी तो परछाईं उसी की। काम में जिसकी झलक है, वह राम की परछाईं है।
पत्थर के फर्श कगारों में, सीखो की कठिन कतारों में,
खंभों, लोहों के द्वारों में, इन तारों में, दीवारों में, कुंडी, ताले, संतरियों में, इन पहरों की हुंकारों में, गोली की इन बौछारों में, इन वज बरसती मारों में,
इन सुर शरमीले, गुण-गर्वीले कष्ट सहीले वीरों में, जिस ओर लखू तुम ही तुम हो प्यारे इन विविध शरीरों में! जिस ओर लखू तुम ही तुम हो प्यारे इन विविध शरीरों में।
लेकिन यह तो पीछे से है। जब तुम जीवन की पूरी किताब पढ़ जाओगे तब तुम लौट कर देखोंगे कि अरे, यह कथा एक ही थी! कहीं अटक जाते तो यह कभी समझ में न आता। यह आज तुम्हें मेरी बात अनेक बार उल्टी मालूम पड़ती है। मैं तुमसे कहता हूं: कामवासना में जो तुम्हें सुख मिला है वह भी ब्रह्मचर्य की झलक है। अब तुम चकित होओगे यह बात सुन कर। लेकिन मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करूं, अभी तो यह ऊपर-ऊपर बुद्धि के ही खयाल में आएगा।
कामवासना उठती है, उत्तप्त ज्वर घेर लेता है, मन डावांडोल होता है, धुएं से भर जाता है। फिर जब तुम कामवासना में उतरते हो तो एक घड़ी आती है जहां कामवासना तृप्त हो जाती है। उस तृप्ति के क्षण में फिर कोई काम-विकार नहीं रह जाता। उस क्षण में ब्रह्मचर्य की अवस्था होती है। चाहे क्षण भर को सही, कोई विकार नहीं रह जाता। वह झलक तो ब्रह्मचर्य की है, जिससे सुख मिल रहा है; लेकिन तुम सोचते हो कामवासना से मिल रहा है। घड़ी आधा घड़ी को तो फिर संसार में कोई