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या उन्हें अपने में लीन कर लेता है। वह जो अतिक्रमण की दशा है, वहां दो घटनाएं हैं। वह भी दो कहने को, एक ही घटना है। क्योंकि बूंद सागर में गिरी कि सागर बूंद में गिर गया है, क्या फर्क पड़ता है, एक ही बात है। या तो ईश्वर साक्षी में लीन हो जाता है या साक्षी ईश्वर में लीन हो जाता है। कबीर ने कहा है:
हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई
बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाई। खोजते –खोजते कबीर खो गया। खोजने वाला खो गया और बूंद सागर में समा गई। लेकिन तब उन्हें खयाल आया कि कुछ बात चूक गई इसमें, तो उन्होंने फिर से यह पद लिखा :
हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई
समुंद समाना बुंद में सो कत हेरी जाई। खोजते-खोजते खोजने वाला खो गया, कबीर खो गया और अब समुद्र बूंद में समा गया, अब उसे कैसे निकाला जाए!
दोनों बातें सच हैं। बूंद समुद्र में समा गई यह पहला अनुभव। क्योंकि यह बूंद की तरफ से अनुभव है। हम तो अभी बूंद हैं। जब पहली दफा घटना घटेगी तो हमें ऐसे लगेगा कि बूंद सागर में समा गई। सागर इतना बड़ा, हम इतने छोटे, सागर तो हममें कैसे समाएगा? हमारी पुरानी छोटेपन की बुद्धि आखिरी तक खड़ी रहेगी। तो बूंद सागर में समा गई। लेकिन एक बार जब बूंद सागर में समा गई, तब हमें दिखाई पड़ेगा कि अरे कोन छोटा, कोन बड़ा! यहां तो एक ही है। तब हम यह भी कह सकते हैं कि सागर बूंद में समा गया।
अतिक्रमण हो जाए, तो या तो तुम प्रभु में समा जाते हो या प्रभु तुममें समा जाता है। दोनों एक ही बात के कहने के दो ढंग हैं।
रुकना भर नहीं। रुके कि सड़े। कहीं भी मत रुकना। जहां तक बन सके चलते ही चले जाना। एक ऐसी बड़ी आती है कि फिर जाने को ही कोई जगह नहीं रह जाती। वही जगह परमात्मा है, जिसके आगे फिर जाने को कुछ नहीं बचता। जब जाने को कोई स्थान ही न बचे, तभी रुकना। अगर तुम्हें जरा-सी भी जगह दिखाई पड़ती हो कि अभी थोड़ा जाने को आगे है, तो चले जाना। जब तक जाने के लिए अवकाश रहे, रुकना मत। तो यात्रा पूरी हो जाएगी। और जिसकी यात्रा पूरी हुई वही घर आता है। घर आता है यानी परमात्मा में वापिस लौट आता है।
आखिरी प्रश्न :
आप निरंतर अपने संन्यासियों को हंसते रहने का उपदेश करते हैं। लेकिन आप दीक्षा में जो माला उन्हें देते हैं, उसके लाकेट में लगा आपका तो चित्र गंभीर मद्रा लिए है। यह गंभीरता क्यों?