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जैसे कि मैं हाथ में एक चमीटा ले लूं तो चमीटे से मैं कोई भी चीज पकड़ सकता हूं लेकिन उसी चमीटे से, जिस हाथ ने चमीटे को पकड़ा है, उसे थोड़े ही पकड़ सकूँगा। उसको पकड़ने की कोशिश में तो चमीटा भी गिर जायेगा, और मेरे हाथ में न रहा तो चमीटा तो कुछ भी नहीं पकड सकता।
बुद्धि भी तुम्हारी है तुम्हारे चैतन्य का हिस्सा है-चैतन्य के हाथ में चमीटा है। उससे तुम सब पकड़ लो, चैतन्य छूट जायेगा। चैतन्य को पकड़ना हो तो चमीटा छोड़ देना पड़े। चमीटे का अगर ज्यादा मोह रखा तो मुश्किल में पड़ोगे। फिर तुम सब समझ लोगे, अपने को नहीं समझ पाओगे।
इसलिए विज्ञान सब समझे ले रहा है, सिर्फ स्वयं, मनुष्य की स्वयंता को भूले जा रहा है। मनुष्य की अंतस चेतना भर पकड़ में नहीं आ रही; और सब पकड़ में आया जा रहा है।
_ विज्ञान महावीर और बुद्ध से बहुत राजी है। इस बात की बहुत संभावना है कि अगर वैज्ञानिक महावीर को पढ़ेंगे तो बड़े चकित होंगे, क्योंकि जो वे आज कह रहे हैं वह महावीर ने ढाई हजार साल पहले कहा है। महावीर की पकड़ तर्क की बड़ी साफ और पैनी है, लेकिन जो भूल वैज्ञानिक कर रहा है वह भूल महावीर ने नहीं की। इतना तो कहा कि जो जाना जा सकता है, तर्क से जाना जा सकता है और जो अतयं है उसकी कोई बात नहीं की। लेकिन अपने साधकों को धीरे-धीरे अतर्क्स की तरफ चुपचाप ले गये, उसकी कोई चर्चा नहीं चलाई, उसका कोई सिद्धात नहीं बनाया। लेकिन वह जाना भी तर्क की गहन संघर्षणा के द्वारा। जब तर्क उस जगह पहुंच जाये किनारे पर, जहाँ आगे पंख न उड़ा सके, जब आगे कोई गति न रह जाये और तर्क अपने-आप से गिर जाये, पंख कट जायें तर्क के-तब जिसका तुम साक्षात करोगे.।
ब्राह्मण कहते हैं. तो यह तर्क की इतनी दूर की यात्रा भी व्यर्थ है। अगर तर्क यहीं गिर जाये पहले कदम पर तो मंजिल यहीं आ जाती है। ब्राह्मण-शास्त्र कहता है कि जब तर्क गिरता है तभी मंजिल आ जाती है। तुम कहते हो, आखिर में गिरायेगे, तुम्हारी मर्जी। अभी गिरा दो तो अभी मंजिल आ जाती है। यह तुम्हारी मौज। अगर तुम कुछ दिन तक इसको ढोना चाहते हो तो ढोते रहो। ऐसा नहीं है कि किसी खास जगह गिराने से मंजिल आती है, जहां तुम गिरा देते हो वहीं मंजिल आ जाती है। गिराने से मंजिल आती है। उस तर्क के गिराने का नाम श्रद्धा है।
आज के सूत्र बड़े अनूठे हैं। बहुत खयाल से समझने की बात है।
पहला सूत्र. 'हे सौम्य, हे प्रिय! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर! इसमें मोह मत कर। तू ज्ञानरूप है, भगवान है, परमात्मा है, प्रकृति से परे है।'
'हे सौम्य!'
'सौम्य' का अर्थ होता है समत्व को उपलब्ध, सौंदर्य को उपलब्ध, समता को उपलब्ध, प्रसाद को उपलब्ध, समाधि के बहुत करीब है जो।सौम्य' शब्द बड़ा प्यारा है! संतुलन को उपलब्ध! जो भीतर ठहरा-ठहरा हो रहा है, ठहरा जा रहा है, आखिरी तरंग भी खोई जा रही है, जल्दी ही कोई तरंग न रह जायेगी झील पर। समाधि बस करीब है। जैसे क्षण भर की देर है पलक खुलने को। बस इतना ही फासला है।