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यहां नीचे भी उसका सुवास आता है अदेह की विभा देह में झलक मारती है, और देहक ज्योति अदेह की आरती उतारती है।
द्वैताद्वैत से परे मेरी यह विनम्र टेक है,
प्रभु! मैं और तुम दोनों एक हैं। इस संसार में तुम दो को भूलना शुरू करो, 'मैं- 'तू को भूलना शुरू करो और जैसे भी बने, जहां से भी बने, जहां से भी थोड़ी झलक उठ सके एक की-उस झलक को पकड़ो। वे ही झलकें सघनीभूत हो-हो कर एक दिन समाधि बन जाती हैं।
पांचवां प्रश्न :
कल आपने कहा कि भोग की यात्रा अंतत: योग पर पहुंचा देती है। कृपा करके समझाइये, क्या योग की यात्रा जीवन की वर्तलाकार गति के कारण पन: भोग पर पहुंचा देती है? क्या भोग-योग से अतिक्रमण जैसा कुछ भी नहीं है? कृपा करके अष्टावक्र के संदर्भ में हमें समझाइए।
भाग की यात्रा योग पर पहुंचा देती है अगर रुके न कहीं। जरूरी नहीं कि पहुंच ही जाओ। अगर अटक गए तांबे की खदान पर तो तांबे पर अटके रहोगे। भोग की यात्रा पहुंचा देती है ऐसा मै नहीं कहता-पहुंचा सकती है। खोजे जाओ अटकी मत, रुको मत, बढ़े जाओ, चले जाओ-तो भोग की यात्रा पहुंचा देती है योग पर। फिर योग में अटक गये अगस्तो प्रश्नकर्ता ने ठीक बात पूछी है-अगर योग में अटक गए तो फिर भोग में गिर जाओगे।
इसीलिए तो योगी स्वर्ग पहुंच जाता है। स्वर्ग यानी भोग। कमा लिया पुण्य पहुंच गए स्वर्ग खर्चा करने लगे। इसलिए तो जैन-बौद्ध कथाएं बड़ी' महत्वपूर्ण हैं। जैन-बौद्ध कथाएं कहती हैं कि जब स्वर्ग में पुण्य चुक जाता है, फिर फेंक दिए जाते हैं, फिर संसार में। स्वर्ग से कोई मुक्त नहीं होता, मुक्त तो मनुष्य से ही होता है। ये बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर योग में अटक गए तो फिर भोग में गिरोगे। कितनी देर तक योग चलेगा! वर्तुलाकार है जीवन की गति। तो जैसा मैंने तुमसे कहा. भोग में मत अटकना तो योग। अगर योग में न अटके तो अतिक्रमण। तो तुम साक्षी. भाव में प्रवेश कर जाओगे।
तो न तो भोग में अटकना, क्योंकि भोग में भी अटकाने के बहुत कारण हैं बड़े सुंदर सपने हैं। और योग में भी बड़े सुंदर सपने हैं, पतंजलि ने उन्हीं का वर्णन किया विभूतिपाद में। बड़ी विभूतियां हैं, बड़ी सिद्धियां है-उन सिद्धियों में अटक जाओगे। तो जो योग में अटका, वह आज नहीं कल भोग