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कामवासना नहीं रह जाती। घड़ी आधा घड़ी को तो तुम फिर काम- भावना से घिरते ही नहीं। घड़ी आधा घड़ी को कामवासना से छुटकारा हो जाता है।
तुम भोजन कर लेते हो, भूख लगी थी, पीड़ा हो रही थी-भोजन कर लिया, तृप्ति हो गई। उस तृप्ति के क्षण में उपवास का रस है। उतनी थोड़ी-सी देर के लिए फिर भोजन की कोई याद नहीं आती। और उपवास का अर्थ ही यह है कि भोजन की याद न आए। जब देह बिलकुल स्वस्थ होती है, जब देह तरंगित होती है, तब थोड़ी देर को विदेह की झलक मिलती है।
तुम कभी खिलाड़ियों से पूछो, दौड़ाको से पूछो, तैराकों से पूछो। तैरने वाले को कभी-कभी ऐसी घड़ी आती है, सूरज की रोशनी में, लहरों के साथ तैरते हुए, एक क्षण को देह ऐसी तरंगित होने लगती है, ऐसा आनंद- भाव उठता है देह में, ऐसा सुख बरसता है कि देह भूल जाती है, विदेह हो जाता है। वह सुख विदेह का है। कभी दौड़ते समय, दौड़ने वाले को एक ऐसी घड़ी आती है जब कि भीतर का मिजाज और बाहर का मौसम समरस हो जाता है। भागता हुआ पसीने से तरबतर लेकिन चित्त शांत हो जाता है, विचार रुक गए होते हैं। हवाओं के झरोखों में? शीतल हवा में, वृक्ष के तले खड़े हो कर छाया में एक क्षण को देह भूल जाती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खिलाड़ी को जो मजा है वह देह से मुक्त होने का है। नहीं तो कोई पागल है, लोग इतना दौड़ते, इतना तैरते-किसलिए? तुम सोचते हो सिर्फ पुरस्कार के लिए? लेकिन बहुत लोग हैं जो बिना पुरस्कार के दौड़ रहे हैं। तुम्हें भी शायद कभी ऐसा मौका आया हो, घूमने गए हो और एक घड़ी को जैसे शरीर न रहा, ऐसी तरतमता हो गई, बस उसी वक्त सुख मिला! तुम दूसरों से कहते हो कि बड़ा सुख मिलता है घूमने में.! लेकिन अगर दूसरा तुम्हारी मान कर जाए और रास्ते में पूरे वक्त सोचता रहे कि कब मिले, कब मिले सुख, अब मिले, अभी तक नहीं मिला-वह खाली हाथ लौट आएगा! क्योंकि सुख मिलता है देह को भूल जाने में।
पीछे जब तुम कभी लौट कर देखोगे तो तुम पाओगे कि काम में भी जो सुख मिला था वह भी क्षण भर को कामवासना से मुक्त हो जाने के कारण मिला था। और भोजन में भी जो सुख मिला था, वह भी क्षण भर को भूख से मुक्त हो जाने में मिला था। क्षण भर को वासना क्षीण हो गई थी, जरूरत न रही थी। देह से भी जो सुख जाने, वे सुख तभी मिले थे जब देह भूल गई थी और विदेह चित्त हो गया था। मगर यह तो पीछे समझ में आएगा, जब राम का अनुभव हो जाएगा। पीछे लौट कर देखोगे तो तुम पाओगे : अरे, सब जगह यही स्वाद था!
उमड़ता मेरे दुर्गो में बरसता घनश्याम में जो अधर में मेरे खिला नव इंद्रधनु अभिराम में जो बोलता मुझमें वही