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करता है। बच्चों को पुचकारेंगे, दुलारेगे, जैसे अभिनेता करता है, जैसे अपने बच्चे नहीं हैं, एक नाटक कर रहे हैं। तुम जरा करके तो देखो। अगर क्षण भर को भी तुम्हें अभिनय का भाव आ जाएगा तो तुम चकित हो जाओगे। अभिनय का भाव आते ही सब शांत हो जाता है, फिर कोई अशांति नहीं। इसलिए हिंदू कहते हैं. जगत लीला है। इसे खेल समझो, गंभीर मत हो जाओ।
तीसरा प्रश्न :
कल का प्रवचन सुनते हुए मुझे लगा कि आपमें चार्वाक-सखं जीवेत' और 'अष्टावक्र-सुखं चर' एक साथ बोल रहे हैं। और जाने क्यों वह मुझे प्रीतिकर भी लगा। लेकिन यदि भोग से विरस होने के लिए यानी मुक्ति के लिए भोग से पूरी तरह गुजर जाना जरूरी है तो क्या अच्छा नहीं होगा कि धर्म-साधना के इतने बड़े गोरखधंधे की जगह चार्वाक दर्शन को भरपूर मौका दिया जाए?
सच्चाई तो यही है कि जो भोग में गहरा गया वही योग को उपलब्ध हुआ। सच्चाई तो
यही है कि जो सपने में गहरा उतरा, वही जागा। सच्चाई तो यही है कि अनुभव के अतिरिक्त इस जगत में वैराग्य के पैदा होने का कोई उपाय न कभी था, न है, न होगा। इसलिए परमात्मा जगत को बनाए चला जाता है और तुम्हें जगत में धकाए चला जाता है। क्योंकि जगत में उतर कर ही तुम जान पाओगे कि पार होना क्या है! जगत में इबकी लगा कर ही तुम जगत के ऊपर उठने की कला सीख पाओगे।
ईश्वर भी निश्चित ही चार्वाक और अष्टावक्र दोनों का जोड़ है। चार्वाक को मैं धर्म-विरोधी नहीं मानता। चार्वाक को मैं धर्म की सीढ़ी मानता हूं। सभी नास्तिकता को मैं आस्तिकता की सीडी मानता हूं। तुमने धर्मों के बीच समन्वय करने की बातें तो सुनी होंगी-हिंदू और मुसलमान एक; ईसाई और बौद्ध एक। इस तरह की बात तो बहुत चलती है। लेकिन असली समन्वय अगर कहीं करना है तो वह है नास्तिक और आस्तिक के बीच।
यह भी कोई समन्वय है-हिंदू और मुसलमान एक! ये तो बातें एक ही कह रहे हैं, इनमें समन्वय क्या खाक करना? इनके शब्द अलग होंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है?
मैं एक आदमी को जानता था, उसका नाम रामप्रसाद था। वह मुसलमान हों गया, उसका नाम खुदाबक्या हो गया। वह मेरे पास आया। मैने कहा : 'पागल! इसका मतलब वही होता है-रामप्रसाद। खुदाबक्या होकर कुछ हुआ नहीं। खुदा यानी' राम; बक्या यानी प्रसाद।' वह कहने लगा. 'यह मुझे कुछ खयाल न आया।'
भाषा के फर्क हैं, इनमें क्या समन्वय कर रहे हो? असली समन्वय अगर कहीं करना है तो