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इसने इसीलिए सिगरेट पीना शुरू किया हो कि दस-बारह बच्चों की किचड - बिचड, शोरगुल, परेशानी में किसी तरह अपने को भुलाने का उपाय कर रहा होगा।
हम जो देखते हैं वह हमारी मन की तरंगों से देखते हैं।
गणित के एक अध्यापक के घर बच्चा हुआ, तो उन्होंने पार्टी दी। लोग चौंके। विश्वविद्यालय के और प्रोफेसर भी आये थे, विद्यार्थी भी आये थे। टेबल के सामने एक तख्ती लगी थी, जिस पर लिखा था. 'किन्हीं पांच का रसास्वादन करें, सबके स्वाद समान हैं।' गणित के प्रोफेसर ! पुरानी आदत गणित का पर्चा निकालने की, कि कोई भी पांच प्रश्नों का उत्तर हल करें, सबके अंक समान हैं। आदमी जीता है अपनी आदतो से, सोचता है अपनी आदतो से। और आदतें मन तक हैं, मन के पार कोई आदत नहीं। मन के पार तुम निर्विकार हो। सब तरंगें मन तक हैं।
'राग और द्वेष मन के धर्म हैं।'
रागद्वेषौ मनोधर्मौौं।
'मन कभी भी तेरा नहीं है । '
न ते मनः कदाचन ।
'तू निर्विकार, तू मन का नहीं है।'
त्वं निर्विकल्प: निर्विकारः बोधात्मा असि
'तू तो निर्विकार बोधस्वरूप चैतन्य मात्र है। सुखी हो!'
इस विज्ञान को जान लिया, बस सुख को जान लिया। आत्मा कभी दुखी हुई ही नहीं। और अगर तुम दुखी हुए हो तुमने कहीं भूल से मन को आत्मा समझ लिया है। दुख का एक ही अर्थ है आत्मा का मन से तादात्म्य हो जाना ।
'सब भूतो में आत्मा को और सब भूतो को आत्मा में जान कर तू अहंकार-रहित और ममता-रहित है। तू सुखी हो ।
जैसे ही तुम जान लोगे भीतर के साक्षी को, तुम यह भी जान लोगे कि साक्षी तो सबका एक है। जब तक मन है तब तक अनेक । जब साक्षी जागा तब सब एक । परिधि पर हम भिन्न- भेन्न हैं; भीतर हम एक हैं। ऊपर-ऊपर हम भिन्न-भिन्न हैं; गहरे में हम एक हैं। वहां एकता आ जाती है तो अहंकार कैसा ! और जहां एक ही बचा वहां ममता भी कैसी !
सर्वमृतेयु चात्मानं च सर्वभूतानि आत्मनि विज्ञाय ? निरहंकारः च निर्ममः त्वं सुखी भव । ।
'जिसमें यह संसार समुद्र में तरंग की भांति स्फुरित होता है, वह तू ही है। इसमें संदेह नहीं
है। हे चिन्मय, तू ज्वर - रहित हो, संताप - रहित हो, सुखी हो।'
विश्व स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे ।
इस सागर में ये जो इतनी तरंगें उठ रही हैं, इन तरंगों के पीछे छिपा जो सागर है, वह तू ही है। ये संसार की सारी तरंगें ब्रह्म की ही तरंगें हैं।