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दिनांक 20 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना ।
प्रश्नसार:
पहला प्रश्न :
धर्म अर्थात उत्सव - प्रवचन - दसवां
आपने बताया कि प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है। कृपया बताएं क्या इसके लिए ध्यान जरूरी है?
फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे। फिर प्रेम से कुछ और समझ गए। बिना ध्यान के
प्रेम तो संभव ही नहीं है। प्रेम भी ध्यान का एक ढंग है। फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया। तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता। तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो; पत्नी से, बच्चे से, पिता से, मां से, मित्रों से ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म-जन्म किया है। ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं। तुम देह की भाषा ही समझते हो। इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं तुम अपनी देह की भाषा में अनुवाद कर लेते हो वहीं भूल हो जाती है। प्रेम का मेरे लिए वही अर्थ है जो प्रार्थना का है।
एक पुरानी कहानी तुमसे कहूं झेन कथा है। एक झेन सदगुरु के बगीचे में कद्दू लगे थे। सुबह-सुबह गुरु बाहर आया तो देखा, कद्दूओ में बड़ा झगड़ा और विवाद मचा है। कद्दू ही ठहरे ! उसने कहा : 'अरे कद्दूओ यह क्या कर रहे हो? आपस में लड़ते हो !' वहा दो दल हो गए थे कद्दूओं में और मारधाड़ की नौबत थी। झेन गुरु ने कहा 'कद्दूओ, एक-दूसरे को प्रेम करो।' उन्होंने कहा 'यह हो ही नहीं सकता। दुश्मन को प्रेम करें? यह हो कैसे सकता है!' तो झेन गुरु ने कहा, 'फिर ऐसा करो, ध्यान करो।' कदुओं ने कहा. 'हम कद्दू हैं, हम ध्यान कैसे करें ?' तो झेन गुरु ने 'कहा : 'देखो - भीतर मंदिर
द्ध भिक्षुओं की कतार ध्यान करने बैठी थी- देखो ये कद्दू इतने कद्दू ध्यान कर रहे हैं।' बौद्ध भिक्षुओं के सिर तो घुटे होते हैं, कदुओं जैसे ही लगते हैं। तुम भी इसी भांति बैठ जाओ।' पहले तो कद्दू हंसे, लेकिन सोचा 'गुरु ने कभी कहा भी नहीं मान ही लें, थोड़ी देर बैठ जाएं।' जैसा गुरु ने कहा वैसे ही बैठ गए - सिद्धासन में पैर मोड़ कर आंखें बंद करके, रीढ़ सीधी करके। ऐसे बैठने से थोड़ी देर में शांत