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लिए हो। अंधेरा तो देखो कितना है, मीलों तक फैला हुआ है और तुम्हारी रोशनी तो दो कदम पड़ती है!' उस आदमी ने कहा. 'पागल हुए हो दो कदम चल लिए, तब दो कदम और आगे रोशनी पड़ जाएगी। ऐसे-ऐसे तो हजार मील पार हो जाएंगे। यह गणित करके बैठे हो ? यह गणित भ्रांत है। कोई दस मील लंबी रोशनी ले कर चलेंगे, तब पहुंचेंगे? तो चलना ही मुश्किल हो जाएगा। इतना बड़ा रोशनी का इंतजाम.. चलना असंभव हो जाएगा। दो कदम पर्याप्त हैं। दो कदम दिख जाता है, दो कदम चल लेते हैं; फिर दो कदम दिखने लगता है, फिर दो कदम चल लेते हैं।
लाओत्सु ने कहा है. एक-एक कदम चल कर दस हजार मील की यात्रा पूरी हो जाती है। एक क्षण तुम्हारा मन शांत हो गया, पर्याप्त है। एक ही क्षण तो मिलता है, फिर एक क्षण मिलेगा। तुम्हें क्षण में शांत होने की कला आ गई, दूसरे क्षण में भी तुम शांत होने की कला का उपयोग कर लेना। तुम्हें गीत गुनगुनाना आ गया इस क्षण गुनगुनाया, अगले क्षण भी गुनगुना लेना । ऐसे-ऐसे एक जन्म में क्या, जन्मों-जन्मों बीत जाएं, कोई अंतर नहीं पड़ता ।
मैं तुमसे कहता हूं. एक क्षण के लिए जो शांत होना सीख गया, वह सदा के लिए शांत हो गया। क्योंकि एक क्षण में उसने समय पर पकड़ बांध ली। अब समय उसे न हरा सकेगा। अब तो समय तभी हरा सकता है जब समय एक साथ दो क्षण तुम्हें दे दे। तब तुम मुश्किल में पड़ जाओगे कि एक क्षण तो शांत हो जाएगा और एक क्षण ? लेकिन समय कभी दो क्षण तुम्हें एक साथ देता नहीं। दो पल किसे मिलते हैं!
दूसरी बात. 'जिस तरह झील कभी शांत, कभी चंचल और कभी तूफानी अवस्था में होती है, क्या उसी तरह आत्मज्ञानी सासारिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता है?'
हमारे मन में आत्मज्ञान के संबंध में बड़ी भ्रांत धारणाएं हैं। पहली तो बात, आत्मज्ञानी का अर्थ होता है जो बचा नहीं। तो शांत होता है, अशांत होता है - यह प्रश्न व्यर्थ है। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई आदमी पूछे कि कमरे में हमने दीया जलाया, फिर अंधेरे का क्या होता है? फिर अंधेरा कहां जाता है?' हम कहेंगे. अंधेरा बचता ही नहीं ।
'सिकुड़ कर छिप जाता है किसी कोने - कातर में? कुर्सी के पीछे ? दरवाजे के बाहर प्रतीक्षा करता है? कहां चला जाता है? क्योंकि जब हम दीया बुझाते हैं, फिर आ जाता है - तो कहीं जाता होगा, आता होगा!'
सारी बातें धात हैं। अंधेरा है ही नहीं। अंधेरा तो केवल प्रकाश के न होने का नाम है।
समझो तुम हो क्योंकि अज्ञान है। जैसे ही ज्ञान हुआ तुम गए। शांत होने को भी कोई नहीं बचता, अशांत होना तो दूर की बात है। जब तुम नहीं बचते, उस अवस्था का नाम शांति है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम शांत हो गए। ऐसा थोड़े ही है कि तुम रहे और फ़ शांति। तुम रहे तब तो अशांति। तुम्हारा होना अशांति का पर्यायवाची है। तुम नहीं रहे तो शांति। फिर कैसे अशांत होओगे? मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम शांत हो गए हो। मैं तो कह रहा हूं तुम नहीं हो गए हो। इसलिए तो कहता हूं : शहादत का मौका है, मिटने की तैयारी करनी है। तुम्हारी आकांक्षा यह है कि हम तो