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कर लेंगे। यह कंठ तो गया । प्रभु ने ऐसा कहा ।'
यह मैं मानता हूं कि रामकृष्ण ने पूछा नहीं होगा पूछ सकते नहीं ।
जाग्रत पुरुष को कैंसर नहीं होगा, ऐसा नहीं है, हो सकता है। क्योंकि कैंसर कोई तुम्हारी जागृति और गैर-जागृते से नहीं चलता; वह तो शरीर के गुणधर्म से चलता है। वह तो शरीर की अलग यात्रा चल रही है। तुम जाग गए तो पैर में काटा नहीं गड़ेगा, ऐसा नहीं है। तूफान तो आते रहेंगे, आंधिया आती रहेंगी, छप्पर गिरते रहेंगे, लेकिन अब तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें स्वीकार है।
पूछा है. 'क्या उस अवस्था में आजीवन जीया जा सकता है? जिस तरह झील कभी शांत, कभी चंचल, कभी तूफानी अवस्था में होती है, क्या उसी तरह आत्मज्ञानी सांसारिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता है?'
नहीं, आत्मज्ञानी होता ही नहीं इसलिए प्रभावित और अप्रभावित का कोई अर्थ नहीं। जो क कि प्रभावित होता हूं वह तो आत्मज्ञानी है ही नहीं। और जो कहे कि मैं अप्रभावित रहता हूं वह भी आत्मज्ञानी नहीं है। क्योंकि प्रभाव - अप्रभाव दोनों एक ही दिशा में हैं। उनमें दोनों में तुम तो मौजूद हो–कोई प्रभावित होता है, कोई प्रभावित नहीं होता। लेकिन अकड़ तो मौजूद है, अहंकार तो मौजूद है। और अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं कहता हूं: जो प्रभावित होता है, वही सरल है। जो अप्रभावित रहता है वह कठिन, कठोर है, जड़ है। प्रभावित न होने से तो प्रभावित होना ही बेहतर है, कम से कम तरल तो हो । तूफान आते हैं हिलते डुलते तो हो पत्थर की तरह तो नहीं हो। लेकिन ये दोनों ही अवस्थाएं आत्मज्ञान की नहीं हैं।
आत्मज्ञान की अवस्था में तो तुम हो ही नही- जो होता है, होता है। न कोई प्रभावित होने को बचा, न कोई अप्रभावित रहने को बचा। आर-पार सब खाली है, पारदर्शी हो गए। किरण आती, गुजर जाती, कहीं कोई रुकावट नहीं पड़ती।
आज तो यह असंभव लगेगा। आज तो यह बिलकुल असंभव लगेगा। आज तो ऐसा लगता है कि अप्रभावित होना ही बड़ी दूर की मंजिल है। प्रभावित तो हम होते हैं हर पल छोटी-छोटी बात से, अप्रभावित होने को हमने लक्ष्य बना रखा है। और मैं कह रहा हूं : उसके भी पार जाना है।
टहलना छोड़ दूं
यह हो सकता है
लेकिन टहलूं
और जमीन से पांव न लगें
यह अनहोनी बात है।
पानी से दूर रहूं
यह संभव है
लेकिन पानी में तैरें
और वस्त्र न भीगें,