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मांगती हैं भूखी इंद्रियां
भूखी इंद्रियों से भीख! और किससे तुम मांगते हो भीख, यह भी कभी तुमने सोचा? -जो तुमसे भीख मांग रहा है। भिखारी भिखारी के सामने भिक्षा-पात्र लिए खड़े हैं। फिर तप्ति नहीं होती तो आश्चर्य कैसा? किससे तुम मांग रहे हो? वह तुमसे मांगने आया है। तुम पत्नी से मांग रहे हो, पत्नी तुमसे मांग रही है; तुम बेटे से मांग रहे हो, बेटा तुमसे मांग रहा है। सब खाली हैं, रिक्त हैं। देने को कुछ भी नहीं है; सब मांग रहे हैं। भिखमंगों की जमात है।
मांगती हैं भूखी इंद्रियाँ भूखी इंद्रियों से भीख मान लिया है स्खलन को ही तृप्ति का क्षण! नहीं होने देता विमुक्त इस मरीचिका से अघोरी मन बदल-बदल कर मुखौटा ठगता है चेतना का चिंतन होते ही पटाक्षेप, बिखर जाएगी
अनमोल पंचभूतो की भीड़। यह तुमने जिसे अपना होना समझा है, यह तो पंचभूतो की भीड़ है। यह तो-हवा, पानी, आकाश तुममें मिल गए हैं। यह तुमने जिसे अपनी देह समझा है, यह तो केवल संयोग है; यह तो बिखर जाएगा। तब जो बचेगा इस संयोग के बिखर जाने पर, उसको पहचानो, उसमें डूबो, उसमें डुबकी लगाओ। वहीं से प्रेम उठता है। और उसमें इबकी लगाने का ढंग ध्यान है। अगर तुमने ध्यान की बात ठीक से समझ ली तो प्रेम अपने-आप जीवन में उतरेगा या प्रेम की समझ ली तो ध्यान उतरेगा-ये एक ही बात को कहने के लिए दो शब्द हैं। ध्यान से समझ में आता हो तो ठीक, अन्यथा प्रेम। प्रेम से समझ में आता हो तो ठीक, अन्यथा ध्यान। लेकिन दोनों अलग नहीं हैं।
अकबर शिकार को गया था। जंगल में राह भूल गया, साथियों से बिछड़ गया। सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा, अकबर डरा हुआ था। कहा रुकेगा रात जंगल में खतरा था, भाग रहा था। तभी उसे याद आया कि सांझ का वक्त है, प्रार्थना करनी जरूरी है। नमाज का समय हुआ तो बिछा कर अपनी चादर नमाज पढ़ने लगा। जब वह नमाज पढ़ रहा था तब एक स्त्री भागती हुई अल्हड़ स्त्री-उसके नमाज के वस्त्र पर से पैर रखती हुई उसको धक्का देती हुई वह झुका था गिर पड़ा। वह भागती हुई निकल गई।
अकबर को बड़ा क्रोध आया। सम्राट नमाज पढ़ रहा है और इस अभद्र युवती को इतना भी बोध नहीं है! जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, भागा घोड़े पर, पकड़ा स्त्री को। कहा : 'बदतमीज है! कोई