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क्या चाहते हैं-किस तरह दफनाए, क्या करें?' तो उसने क्या कहा 1' उसने कहा. 'मैंने सुना है कि ईसाई साध्वियां कहती हैं कि वे तो क्राइस्ट की वधुएं हैं! क्या सच है 2: ' स्वभावत:, आश्रम की प्रधान ने कहा. 'यह सच है। साध्वियां क्राइस्ट की वधुएं हैं, उनकी पत्नियां हैं। हमने सब कुछ उन्हीं पर छोड़ दिया है; वे ही हमारे एकमात्र पति हैं। तो उस यहूदी ने कहा 'फिर ऐसा करो, मेरे दामाद से पूछ लो। क्राइस्ट से पूछ लो कि क्या करना है। मुझसे क्यों पूछती हो? मेरे दामाद से पूछ लो।'
फ्रायड तो कहता है, यह कामुकता है-दबी हुई कामुकता फ्रायड तो एक ही बात समझता है. दबी हुई कामुकता। उसने प्रेम का और कोई बड़ा रूप तो जाना नहीं। उसने तो रुग्ण बीमार लोगों के मन की चिकित्सा की, बीमार मन को पहचाना। वही उसकी भाषा, वही उसकी समझ। यह तो अच्छा हुआ कि कबीर के वचन उसके हाथ नहीं पड़े कि 'मैं तो राम की दुलहनियां!'! नहीं तो वह कहता कि ये होमोसेक्यूअल हैं। स्त्री हो और कहे कि मैं दुलहन, चलो, क्षमा करो; यह कबीर को क्या हुआ कि मैं राम की दुलहनियां! हद हो गयी! फ्रायड तो निश्चित कहता कि यह मामला गड़बड़ है। यह तो मीरा से भी ज्यादा गड़बड़ हालत है। पुरुष हो कर और दुलहनियां! तुम्हारा दिमाग खराब है?
लेकिन कबीर को समझने का यह रास्ता नहीं है। एक ऐसा भाव है, एक ऐसी जगह है, जहां परमात्मा ही एकमात्र पुरुष रह जाता है और भक्त स्त्रैण हो जाता है।
स्त्री और पुरुष शरीर के तल पर एक बात है, चैतन्य के तल पर एक दूसरी बात है। तो कबीर क कहते हैं. 'मैं तो राम की दलहनियां!' वहां चेतना के तल पर परमात्मा देने वाला है और हम लेने वाले हैं; जैसा पुरुष देने वाला है शरीर के तल पर और स्त्री लेने वाली है, जैसे स्त्री ग्राहक है, गर्भ है। पुरुष देता है, स्त्री अंगीकार कर लेती है, स्वीकार कर लेती है। ऐसे ही उस तल पर परमात्मा देता है; भक्त स्वीकार करता है, अंगीकार करता है; भक्त तो गर्भ -रूप हो जाता है। परमात्मा उसके गर्भ में प्रवेश कर जाता है।
मगर इस बात को तो तभी समझोगे जब यह बात तुम्हारे जीवन में कभी घटी हो; कहीं किसी क्षण में तुम्हारे अंधकार में परमात्मा की किरण उतरी हो। तब तुम जानोगे 'मैं राम की दुलहनियां' का क्या अर्थ है? ऐसा हुआ न हो तो तुम तो वही अर्थ निकालोगे जो तुम निकाल सकते हो। तुम्हारा अर्थ तुम्हारा अर्थ है। तुम्हारा अर्थ तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। होगा भी कैसे? अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
भ्रांतस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते। जो जैसा है, जिसकी जैसी दशा है, उतना ही जानता है।
तुम भ्रांत हो, तुम जानते हो कि शरीर भोजन मांगता है। तुम जानते हो शरीर कामवासना के लिए आतुर होता है, शरीर प्यासा होता है। रात सो गये, सुबह उठे, फिर दौड़े। तुम बुद्ध को भी ऐसा ही देखते हो। इतना ही तुम्हारा जानना है। तुम्हारे भीतर कोई जागा नहीं अभी, दीया जला नहीं। तुम्हारे भीतर तो अंधेरा है, तुम कैसे मान लो कि बुद्ध कहते हैं, मेरे भीतर दीया जला है! कबीर तो कहते हैं मेरे भीतर हजार-हजार सूरज उतर आए हैं। तुम कैसे मान लो!