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लेगा, यह भी पक्का नहीं। बार-बार कहने पर भी सुन ले तो भी बहुत । बास्बार कहने पर भी चूक जाये, यही ज्यादा संभव है। ये सत्य इतने बड़े हैं कि एक बार में तो समझ में ही नहीं आते, ह बार में भी नहीं आते।
फिर, कहा जाता है कि अच्छा शिक्षक वही है जो अपनी कक्षा में आखिरी विद्यार्थी को ध्यान में रख कर बोले। कक्षा में सब तरह के विद्यार्थी हैं- प्रथम कोटि के, द्वितीय कोटि के, तृतीय क
। जिनका बुद्धि अंक बहुत है वे भी हैं; जिनके पास बुद्धि बहुत दुर्बल है वे भी हैं। अच्छा शिक्षक वही है जो आखिरी विद्यार्थी को ध्यान में रख कर बोले प्रथम विद्यार्थी को ध्यान में रख कर बोले तो एक समझेगा, उनतीस बिना समझे रह जाएंगे; अंतिम को ध्यान में रख कर बोले तो तीस ही समझ पाएंगे। पूर्व के शास्त्र परम सत्य को भी कहते हैं तो अंतिम को ध्यान में रख कर कहते हैं। इसलिए बहुत पुनरुक्ति है। बार-बार वही बात कही गई है। इससे तुम घबराना मत। और फिर भी पुनरुक्ति एकदम पुनरुक्ति नहीं है, हर पुनरुक्ति में सत्य की कोई नई झलक है।
सागर के किनारे बैठ कर देखो, लहरें आती हैं, एक सी ही लगती हैं! लेकिन, और थोड़े गौर से देखना तो कोई लहर दूसरी जैसी नहीं। बहुत ध्यानपूर्वक देखोगे तो हर लहर का अपना हस्ताक्षर है, अपना ढंग, अपनी लय, अपना रूप, अपनी अभिव्यक्ति। कोई दो लहरें एक जैसी नहीं; जैसे किन्हीं दो आदमियों के अंगूठे के चिह्न एक जैसे नहीं। ऐसे ऊपर से देखो तो सब अंगूठे एक जैसे लगते हैं, गौर से देखने पर, खुर्दबीन से देखने पर पता चलता है कि बड़े भिन्न हैं।
अष्टावक्र की गीता में तुम्हें बहुत बार लगेगा कि पुनरुक्ति हो रही है तो समझना कि तुम्हारे पास खुर्दबीन नहीं है। एक अर्थ में पुनरुक्ति है। सत्य दो नहीं हैं। तो एक ही सत्य को बार-बार कहना है, अहर्निश कहना है। पुनरुक्ति है। तुमने शास्त्रीय संगीत सुना? वैसी ही पुनरुक्ति है। शास्त्रीय संगीतज्ञ एक ही पंक्ति को दोहराए चला जाता है। लेकिन जो जानता है, जिसे शास्त्रीय संगीत का स्वाद है, वह देखेगा कि हर बार दोहराता है, लेकिन नये ढंग से, हर बार उसका जोर अलग- अलग हिस्से पर होता है; पंक्ति वही होती है, जोर बदल जाता है; पंक्ति वही होती है, स्वरों का उतार-चढ़ाव बदल जाता है।
लेकिन जिसे स्वरों के उतार-चढ़ाव का कोई पता नहीं, आरोह अवरोह का कोई पता नहीं, वह तो कहेगा. 'क्या एक ही बात कहे चले जा रहे हो! क्या घंटों तक ......!'
बात एक ही है, और फिर भी एक ही नहीं है। शास्त्र शास्त्रीय संगीत हैं। बात एक ही है, फिर भी एक ही नहीं है। लहरें एक जैसी लगती हैं क्योंकि तुमने गौर से देखा नहीं। अन्यथा हर लहर में तुम कुछ नया भी पाओगे ।
सत्य नया भी है और पुराना भी - पुरातनतम, सनातन और नित नूतन । सत्य विरोधाभास है। तो जब तुम्हें कभी ऐसा लगे कि फिर पुनरुक्ति हो रही है । अष्टावक्र फिर वही - वही बात क्यों लगते हैं पू कह तो चुके। किसी नये पहलू को उभारते हैं।
इस बात को भी खयाल में ले लो। तुम्हारा सभी का शिक्षण पश्चिमी ढंग से हुआ है। अब तो