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ऐसी ही संतो की गति है। परमात्मा में डुबकी तो मार गए, लेकिन परमात्मा से ही बने हैं, जैसे नमक का पुतला सागर से ही बना है। तो डुबकी तो लग जाती है। फिर चले गहराई की तरफ । जैसे -जैसे गहरे होते हैं, वैसे-वैसे पिघलने लगे, खोने लगे। एक दिन पता तो चल जाता है गहराई का; लेकिन जब तक पता चलता है तब तक खुद मिट जाते हैं, लौटने का उपाय नहीं रह जाता। कोई प्रभु से कभी लौटा ? लौटने का कोई उपाय नहीं। इसलिए कोई उत्तर नहीं है। निरुत्तर है आकाश, निरुत्तर है अस्तित्व। इस निरुत्तर अस्तित्व के सामने तुम मौन हो कर झुको, अकिंचन हो कर झुको । अज्ञान को स्वीकार कर झुके ।। वहीं प्रकाश की किरण उतरेगी। तुम मिटे कि प्रकाश हुआ। तुम मिटे कि परमात्मा प्रगट हुआ। तुम्हारे होने में बाधा है।
हरि ओम तत्सत्!