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उत्पात ले आता है। उसमें तुम होते भी हो, लेकिन पुराने अर्थों में नहीं होते। एक बड़ा नया अर्थ होता है। पुराना जो दुख से भरा हुआ तुम्हारा जीवन था वह और दुख के सहारे तुमने जो अहंकार खड़ा किया था, वह नहीं होता, वह जा चुका। सुख की एक लहर होती है। वह लहर तम्हें ले गई बहा ले गई। तुम अब किनारे पर अपने को पाते नहीं। इसलिए सुख को मानने की तैयारी नहीं होती और दुख को पकड़ने का मन होता है।
अनुभव दुख का गहन हो जाए और तुम्हारे दुख के अनुभव से, दुख में तुम्हारे डाले न्यस्त स्वार्थ क्षीण हो जाएं, तुम दुख में रस लेना बंद कर दो, तुम दुख को सम्हालना बंद कर दो..। तुम बड़े हैरान होओगे, जब मैं तुमसे कहता हूं कि तुम दुख का त्याग करो। मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं : दुख का तो हम त्याग करना ही चाहते हैं। मैं नहीं देखता कि तुम करना चाहते हो। तुम्हें साफ नहीं है। नहीं तो दुख का त्याग कभी का हो जाता। तुम्हारे बिना पकड़े दुख रह नहीं सकता; तुम्हारे बिना बचाए, बच नहीं सकता। शायद तुम बड़ी कुशलता से बचा रहे हो। शायद तुमने बड़ी होशियारी कर ली है। तुमने छिपा ली हैं जड़ें, जिनसे तुम रस देते हो दुख को; लेकिन दुख तुम्हारे बिना बच नहीं सकता। तुम कहते जरूर हो ऊपर से कि मैं दुख को मिटाना चाहता हूं, लेकिन गौर से देखो, सच में तुम दुख मिटाने को राजी हो? दुख को मिटाने को राजी हो रू दुख को मिटाने की वह जो महाक्रांति है, उससे गुजरने को राजी हो? दुख मिटाने का अर्थ है, मिटने को राजी हो? क्योंकि तुम्हारा अहंकार दुख का ही जोड़ है, उसका ही संग्रहीभूत रूप है।
इसे ऐसा समझें, जब तुम्हारे पेट में दर्द होता है तो पेट का पता चलता है। पेट में दर्द नहीं होता तो पेट का पता नहीं चलता। सिर में दर्द होता है तो सिर का पता चलता है। जब दर्द नहीं होता तो सिर का पता नहीं चलता। शरीर में कहीं भी पीड़ा हो तो उस अंग का पता चलता है।
ज्ञानियों ने कहा है : जब तम्हारी चेतना में पीडा होती है तो तम्हें पता चलता है कि मैं हं। और जब सब संताप मिट जाता है, कोई पीड़ा नहीं रह जाती, तो पता ही नहीं चलता कि मैं हूं। वह जो न पता चलना है, वह घबराता है-'मैं नहीं हू! तो इससे तो दुख को ही पकड़े रहो; दुख के किनारे को ही पकड़े रहो। यह तो मझधार में डूबना हो जाएगा!'
तो जब तक कोई व्यक्ति दुख के अनुभव को इतनी गहराई से न देख ले कि उसे पता चल जाए कि दुख मैं हूं और मेरे होने में दुख नियोजित है, दुख के बिना मैं हो नहीं सकता-ऐसी गहन प्रतीति के बाद जब कोई सदगुरु के पास आता है तो बस 'यथातथोपदेशेन', जैसे-तैसे थोड़े-से उपदेश में क्रांति घट जाती है।
एक वक्त ऐसा आता है जब सब कुछ झूठ होता जाता है सब असत्य सब पुलपुला सब कुछ सुनसान मानो जो कुछ देखा था, इंद्रजाल था