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कुछ भी नहीं। लेकिन आप कोई भी आपरेशन कर दें।' डॉक्टर ने कहा, 'लेकिन, इसका कोई भी प्रयोजन समझ में नहीं आ रहा है।' उसने कहा : 'जब भी मिलती हूं दूसरी महिलाओं से, किसी ने टान्सिल निकलवा लिये, किसी ने अपैन्डिक्स निकलवा ली, किसी ने कुछ मेरा कुछ भी नहीं निकला तो बात करने को ही कुछ नहीं है। आप कुछ भी निकाल दें। चर्चा को तो कुछ हो जाता है।' वह जब आपकी अपैन्डिक्स निकलती है तो सारा गांव सहानुभूति बतलाता है; जैसे कि आपने कोई महान कार्य किया है, कि धन्य कि आप पृथ्वी पर हैं और आपकी अपैन्डिक्स निकल गई है, और हम अभागे अभी तक बैठे हैं!
तुमने जरा देखा, जब लोग अपने दुख की कथा सुनाने लगते हैं तो तुमने उनकी आंखों में रस देखा ! तुम अगर किसी की दुख की कथा न सुनो तो वह नाराज हो जाता है। मतलब ? मतलब साफ है। वह एक रस ले रहा था। लोग अपने दुख को बढ़ा कर कहते हैं। जरा-जरा सा दुख हो तो उसको खूब बढ़ा-चढ़ा कर कहते हैं। क्योंकि छोटे दुख को कोन सुनेगा ! बड़ा करके कहते हैं। और चाहते हैं कि तुम गौर से सुनो, ध्यानपूर्वक सुनो। देखते रहते हैं कि तुम उपेक्षा तो नहीं कर रहे।
यह तो बड़ी आश्चर्य की बात हुई। यह तो ऐसा हुआ जैसे कोई अपने घाव को कुरेदता हो । घाव को भी लोग कुरेदते हैं। कम से कम पीड़ा से इतना तो पता चलता है कि हम हैं, निश्चित हम हैं। पीड़ा इतना तो सबूत देती है कि हमारा अस्तित्व है। सिर में दर्द होता है तो सिर का पता तो चलता है! अपने होने का अहसास तो होता है कि मैं भी कुछ हूं अन्यथा कुछ कारण नहीं है होने का पता भी नहीं चलता कि हूं भी कि सपना हूं ।
दुख हमें बांधे रखते हैं यथार्थ से। अगर दुख बिलकुल न हो तुम्हें कई बार शक होने लगेगा। यहां मेरे पास बहुत बार ऐसा मौका आता है। लोग आते हैं, ध्यान करते हैं। अगर दो-चार महीने क गये और ध्यान में गहरे उतर गये तो एक घड़ी ऐसी निश्चित आ जाती है, जब सुख की बड़ी तरंगें उठने लगती हैं। तब वे मुझसे आ कर कहते हैं कि सपना तो नहीं है, यह कल्पना तो नहीं है? मैं उनसे पूछता हूं कि तुम जीवन भर दुखी रहे, तब तुमने कभी नहीं कहा कि यह दुख कहीं सपना तो नहीं, कल्पना तो नहीं है। अब पहली दफा सुख की तरंग उठी है तो तुम कहते हो : कहीं कल्पना तो नहीं है? सुख को मानने का मन नहीं होता । सुख को झुठलाने की इच्छा होती है। दुख को मानने का मन होता है, क्योंकि दुख अतीत से चला आ रहा है। लंबी पहचान है। तुम दुख से अजनबी नहीं हो; सुख से तुम बिलकुल अजनबी हो। तुमने सुख जाना नहीं। इसलिए जब पहली दफा आता है तो मानने का मन भी नहीं करता ।
और भी एक बात है जो खयाल में रखना, जब तुम सुखी होते हो तो तुम्हारा अहंकार बिलकुल लीन हो जाता है, मिट जाता है। सुख में अहंकार बचता नहीं । सुख की परिभाषा यही है। अगर अहंकार बच जाए तो तुम्हारा सुख भी दुख ही है। दुख अहंकार को बचाता है; सुख तो बिखेर देता है। सुखी आदमी तो निरहंकारी हो जाता है। सुख की घड़ी इतनी बड़ी है कि आदमी का छोटा-सा अहंकार वि हो जाता है। सुख मस्त कर देता है। सुख डुला देता है-सिहासन से गिर जाता है अहंकार । सुख एक