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एक बस में एक महिला चढ़ी। उसने अठन्नी कंडक्टर को दी। कंडक्टर ने उसे गौर से देखा और कहा कि यह नकली है। महिला ने उसे फिर गौर से देखा, चश्मे को ठीक-ठाक करके देखा और कहा कि नकली हो नहीं सकती। कंडक्टर ने कहा कि क्या सबूत है कि नकली नहीं हो सकती? उसने कहा इस पर लिखा हुआ है उन्नीस सौ से चल रही है। छहत्तर साल चल गई। नकली होती तो छहत्तर साल चलती?
संसार चल रहा है-झूठा होता तो इतना अनंत काल तक चलता? अनंत- अनंत लोग चलते? सारे लोग भागे जा रहे हैं! कोन सुनता है संतो की! संत तो ऐसे ही हैं जैसे कि किसी का दिमाग खराब हो गया हो। कोन सुनता है इनकी! कभी करोड़ों में एकाध कोई संत होता है, जो कहता है : संसार सपना है। इसकी मानें कि करोड़ की मानें! यह एक गलती में हो सकता है, करोड़ गलती में होंगे! यह तो सीधा-सा तर्क है, साफ-सुथरा है कि करोड़ गलती में नहीं हो सकते। और फिर लोकतंत्र के जमाने में तो करोड़ गलती में हो ही नहीं सकते। यह एक आदमी और करोड़ के विपरीत सत्य को सिद्ध करने चला है! लोकमत के जमाने में तो संख्या तय करती है सत्य क्या है। व्यक्ति तो तय करते नहीं कि सत्य क्या है, भीड़ तय करती है। सिरों की गिनती से, हाथ के उठाने से तय होता है कि सत्य क्या है।
अब अगर तुम बुद्ध को खड़ा करवा दो चुनाव में जमानत भी जप्त होगी! कोन इनकी सुनेगा! ये जो बातें कह रहे हैं, न-मालूम किस कल्पनालोक की हैं! अभी तो तुम्हें कल्पना सच मालूम होती है, इसलिए सच कल्पना मालूम होगा। तो लौटना कठिन तो होता है। और फिर जिन दुखों में रहने के हम आदी हो गये, उन दुखों से भी एक तरह की दोस्ती बन जाती है।
तुमने कभी देखा, अगर दो-चार साल कोई बीमारी में रह गए तो निकलने का मन नहीं होता। कहो तुम लाख कितना, निकलने का मन नहीं होता। बीमारी के भी सुख हैं, बिस्तर पर पड़े हैं, सब पर रौब गांठ रहे हैं। न नौकरी पर जाना पड़ता है, न दूकान करनी पड़ती है। पत्नी भी पैर दाबती है जो पहले कभी न दबाती थी। दबवाने को आकांक्षा रखती थी, अब पैर दाबती है। बच्चे सुनते हैं, शोरगुल नहीं करते। कमरे से दबे पांव निकलते हैं कि पिताजी बीमार हैं। मित्र भी देखने आते हैं। सभी की सहानुभूति, सभी का प्रेम बरसता है। तुम अचानक महत्वपूर्ण हो गये हो
दो-चार साल बीमार रहने के बाद, चिकित्सक कहते हैं कि शरीर तो ठीक हो जाए, लेकिन मन का रस लग जाता है बीमारी में। ज्यादा देर बीमार रहना कठिन है, खतरनाक है; क्योंकि शरीर तो ठीक हो सकता है, लेकिन अगर मन को रस पकड़ गया तो फिर शरीर ठीक नहीं हो सकता। फिर तुम कोई नई-नई बीमारियां खोजते रहोगे। बीमारी में तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ हो गया है। बीमारी भी सुख देने लगी है, दुख भी सुख देने लगा है! दुख में भी बहुत दिन रहने के बाद ऐसा लगता है दुख संगी-साथी है; कम से कम अकेले तो नहीं, दुख तो है। बात करने को कुछ तो है।
एक महिला एक डॉक्टर के पास पहुंची-बड़े सर्जन के पास-और कहा कि मेरा कोई आपरेशन कर दें! कोई आपरेशन! उसने पूछा, 'तुम्हें हुआ क्या है? बीमारी क्या है?' उसने कहा : 'बीमारी मुझे