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समझो ऐसा, एक पागलखाने में तुम बंद हो और तुम पागल नहीं हो, तो सारे पागल तुम्हें पागल समझेंगे। समझेंगे ही कि तुम्हारा दिमाग खराब है। उन सबके दिमाग तो एक जैसे हैं, तुम्हारा उनसे मेल नहीं खाता। पागल दौड़ेंगे, चीखेंगे, चिल्लाएंगे; न तुम चीखते, न चिल्लाते, न दौड़ते, मारपीट करते। पागल समझेंगे. 'तुम्हें हुआ क्या है क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? अरे! सब जैसा व्यवहार करो। जैसा सब रह रहे हैं, वैसे रहो। जिनके साथ रहो, वैसे रही। यही बूद्धिमानी का लक्षण है। यह क्या हम सब दौड़ रहे, चीख रहे, चिल्ला रहे, तुम बैठे!' बुद्ध मालूम पड़ेगा जो आदमी स्वस्थ है पागलखाने में।
अष्टावक्र कहते हैं कि कामी, भोगी तत्वज्ञान के पास नहीं फटकना चाहते, क्योंकि उन्हें डर लगता है कि तत्वज्ञानी तो खतरे पैदा कर देता है। तत्वज्ञान की जरा-सी छाया पड़ी कि महत्वाकांक्षा गई। महत्वाकांक्षा गई तो दौड़ गई, सामने हीरा भी पड़ा रहे तत्वज्ञानी के तो वह उठ कर उठाकेग़ नहीं। तो यह तो हालत आलस्य की हो गई। महत्वाकांक्षी समझेगा कि यह हद आलस्य हो गया, सामने हीरा पड़ा था, जरा हाथ हिला देते। वह तो समझेगा, यह आदमी तो ऐसा ही हो गया, जैसे तुमने कहानी सुनी है दो आलसियों की ।
दो आलसी लेटे थे वृक्ष के तले, और प्रार्थना कर रहे थे कि 'हे प्रभु, जामुन गिरे तो मुंह में ही गिर जाए !' एक जामुन गिरी तो एक आलसी ने बगल वाले आलसी को कहा कि भई, मेरे मुंह में डाल दे। उसने कहा 'छोड़ भी, जब कुत्ता मेरे कान में पेशाब कर रहा था, तब तूने भगाया?'
अब इन आलसियों में और भर्तृहरि में.. भर्तृहरि चले गए जंगल में बैठ गये एक वृक्ष के नीचे, छोड दिया संसार। और उनका छोड़ना ठीक था जिसको विरस कहें वह उन्हें पैदा हुआ होगा। भर्तृहरि नै दो शास्त्र लिखे सौंदर्य - शतक और वैराग्य शतक । सौंदर्य - शतक सौंदर्य की अपूर्व महिमा है । शरीर - भोग का ऐसा रसपूर्ण वर्णन न कभी हुआ था न फिर कभी हुआ है। खूब भोगा शरीर को और एक दिन सब छोड़ दिया। उसी भोग के परिणाम में योग फला। फिर दूसरा शास्त्र लिखा. वैराग्य- शतक । वैराग्य की भी फिर महिमा ऐसी किसी ने कभी नहीं लिखी और फिर दुबारा लिखी भी नहीं गई। और एक ही आदमी ने दोनों शतक लिखे-सौंदर्य का और वैराग्य का । एक ही आदमी लिख सकता है। जिसने सौंदर्य नहीं जाना, रस नहीं जाना शरीर में उतरने का, गया नहीं कभी शरीर के खाई - खंदकों में, वह कैसे वैराग्य को जानेगा ! जो गया गहरे में। उसने पाया वहां कुछ भी नहीं, थोथा है। सब दूर के ढोल सुहावने थे, पास जा कर सब व्यर्थ हो गये। मृगजाल सिद्ध हुआ, मृगमरीचिका सिद्ध हुई।
तो बैठे हैं भर्तृहरि एक वृक्ष के नीचे । अचानक आख खुली। सूरज निकला है वृक्षों के बीच से, उसकी पड़ती किरणें, सामने एक हीरा जगमगा रहा है राह पर पड़ा। बैठे रहे । बहुमूल्य हीरा है पारखी थे, सम्राट थे, हीरों को जानते थे। बहुत हीरे देखे थे लेकिन ऐसा हीरा कभी नहीं देखा था। भर्तृहरि के खजाने में भी न था । एक क्षण पुरानी आकांक्षा ने पुरानी आदतो ने बल मारा होगा। एक क्षण हुआ फिर हंसी आई कि यह भी क्या पागलपन है, अभी सब कुछ छोड़ कर आया, और सब देख कर आया कि कुछ भी नहीं है! मुस्कुराए । आख बंद करने जा ही रहे थे कि दो घुड़सवार