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विषयों में विरसता मोक्ष है-प्रवचन-नौवां
दिनांक 19, नवंबर; 1976 श्री रजनीश आश्रम पूना।
सूत्र सारः
यथातथोयदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्। आजीवमयि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति!। 126।। मोक्षो विषयवैरस्यं बधो वैषयिको रसः। एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।। 12711 वाग्मिप्राज्ञमहोद्योगं जनं मूकजडालसम्। करोति तत्त्वबोधोउयमतस्लक्तो बुभुक्षिभि।। 128।। न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्। चिद्रूयोउसि सदा साक्षी निरपेक्ष: सुख चर।। 129।। रागद्वेषो मनोधौं न मनस्ते कदाचन। निर्विकल्योऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुख चर।। 130।। सर्वभतेष चात्मानं सर्वभतानि चात्मनि। विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्ल सखी भव।। 13111 विश्व स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे। तत्त्वमेव न संदेहश्चिन्यूर्ते विज्वरो भव।। 132।।
पूर्वीय शास्त्र सागर की तरंगों जैसे हैं। तरंग पर तरंग, एक जैसी तरंग – सागर कभी थकता
नहीं।
जब पहली बार पश्चिम में पूर्व के शास्त्रों के अनुवाद होने शुरू हुए तो पश्चिमी विचारक जिस बात से सदा परेशान रहे, वह थी कि पूर्व के शास्त्रों में बड़ी पुनरुक्ति है। वही-वही बात फिर-फिर कर कही है। थोड़े – थोड़े भेद से, थोड़े शब्दों के अंतर से, वही-वही सत्य बार-बार उदघाटित किया है। पश्चिम के लिखने का ढंग दूसरा है। बात संक्षिप्त में लिखी जाती है। एक बार कह दी, कह दी, फिर उसकी पुनरुक्ति नहीं की जाती। पूर्व का ढंग बिलकुल भिन्न है। क्योंकि पूर्व ने जाना कि कहने वाले का सवाल नहीं है, सुनने वाले का सवाल है। सुनने वाला बेहोश है। बार-बार कहने पर भी सुन