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पूर्ण नहीं है वस्तु, भाव में केवल उसका भास बांध सके चिन्मय को, ऐसा किस भाषा का पाश! कुंभ कूप तक पहुंचे इतना कर सकती बस डोर
कंचन नहीं, अकिंचन की ही दुर्लभ है पहचान पंचभूत तो नग्न, तत्व ने पहन लिया परिधान छड़ा तुला की कारा, पकडूं मैं अमूल्य का छोर
मूल्य-मुक्त कर ले चल मुझको तू अमूल्य की ओर
मूल्य आदमी के बनाये हैं, अमूल्य परमात्मा का है। सब तुलायें तराजू हमारे हैं: परमात्मा अनतौला है, अमित; कोई माप नही-अमाप!
जो भी जाना जा सकता है वह सीमित है-जानने से ही सीमित हो गया। क्षुद्र ही जाना जा सकता है, विराट नहीं।
बांध सके चिन्मय को, ऐसा किस भाषा का पाश! शब्द में, भाषा में, सिद्धात में, बंधेगा नहीं...। कुंभ कूप तक पहुंचे इतना कर सकती बस डोर _कुएं में डाला गगरी को तो जो डोरी है, वह पानी तक पहुंचा दे गगरी को, और क्या कर सकती है! तर्क और विचार और बुद्धि बस परमात्मा तक पहुंचा देती है और कुछ नहीं कर सकती। वहां जा कर जाग आती है। बस वहां डोर खतम हो जाती है। जहां बुद्धि की डोर खतम होती है, वहीं प्रभु का जल है। जहां विचार, तर्क की क्षमता टूटती है, गिरती है, बिखरती है, वहीं चिन्मय का आकाश है। अज्ञान सिर्फ इस बात का सबूत है कि परमात्मा रहस्य है। ज्ञान इस बात का सबूत होता है कि परमात्मा भी रहस्य नहीं, पढा जा सकता है, खोला जा सकता है। नहीं, उसके महल में प्रवेश तो होता है; बाहर कोई नहीं निकलता। उसमें डुबकी तो लगती है, लौटता कोई भी नहीं है।
रामकृष्ण कहते थे. दो नमक के पुतले एक मेले में भाग लेने गये थे। समुद्र के तट पर लगा था मेला। कई लोग विचार कर रहे थे कि समुद्र की गहराई कितनी है। कोई कहता था, अतल है! गए कोई भी न थे। अतल तो तभी कह सकते हैं जब तल तक गये और तल न पाया। यह तो बड़ी मुश्किल बात हो गई। कोई कहता था, तल है, लेकिन बहुत गहराई पर है। लेकिन वे भी गये न थे।
नमक के पुतलों ने कहा : 'सुनो जी, हम जाते हैं, हम पता लगा आते हैं।' वे दोनों कूद पड़े। वे चले गहराई में। वे जैसे-जैसे गहरे गए वैसे-वैसे पिघले। नमक के पुतले थे, सागर के जल से ही बने थे, सागर में ही गलने लगे। पहुंच तो गए बहुत गहराई में लेकिन लौटें कैसे! तब तक तो खो चुके थे, कभी लौटे नहीं। लोग कुछ दिन तक प्रतीक्षा करते रहे। फिर लोगों ने कहा, अरे पागल हुए हो, नमक के पुतले कहीं पता लाएंगे! खो गए होंगे।