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पता हो कैसे सकता है! इसलिए जिसने जाना कि मैं नहीं जानता वही जानने में समर्थ हो जाता है, क्योंकि वह जान लेता है जीवन परम गुह्य रहस्य है।
परमात्मा रहस्य है, कोई सिद्धात नहीं। जो कहता है परमात्मा है, वह यह थोड़े ही कह रहा है कि परमात्मा कोई सिद्धात है; वह यह कह रहा है कि हम समझ नहीं पाये, समझ में आता नहीं, ज्ञात होता नहीं-अज्ञेय है। इस सारी बात को हम एक शब्द में रख रहे हैं कि परमात्मा है। परमात्मा शब्द में इतना ही अर्थ है कि सब रहस्य है और समझ में नहीं आता; सूझ-बूझ के पार है; बुद्धि के पार है; तर्क के अतीत है; जहां विचार थक कर गिर जाते हैं, वहां है, अवाक जहां हो जाती है चेतना, जहां आश्चर्यचकित हम खड़े रह जाते हैं...।
कभी तुम किसी वृक्ष के पास आश्चर्यचकित हो कर खड़े हुए हो? जीवन कितने रहस्य से भरा है! लेकिन तुम्हारे ज्ञान के कारण तुम मरे जा रहे हो, रहस्य को तुम देख नहीं पाते। और जिसने रहस्य नहीं देखा, वह क्या खाक धर्म से संबंधित होगा! एक छोटा-सा बीज वृक्ष बन जाता है और तुम नाचते नहीं, तुम रहस्य से नहीं भरते! रोज सुबह सूरज निकल आता है, आकाश में करोड़ों-करोड़ों अरबों तारे घूमते हैं, पक्षी हैं, पशु हैं, इतना विराट विस्तार है जीवन का - इसमें हर चीज रहस्यमय है, किसी का कुछ पता नहीं है! और जो-जो तुम्हें पता है वह कामचलाऊ है।
विज्ञान बहुत दावे करता है कि हमें पता है। पूछो कि पानी क्या है? तो वह कहता है हाइड्रोजन और आक्सीजन का मेल है। लेकिन हाइड्रोजन क्या है? तो फिर अटक गये। फिर झिझक कर खड़े हो गये। तो वह कहता है : हाइड्रोजन क्या है, अब यह जरा मुश्किल है। क्योंकि हाइड्रोजन तो तत्व है। दो का संयोग हो तो हम बता दें। पानी दो का संयोग है - हाइड्रोजन और आक्सीजन का जोड़, एच टू ओ। लेकिन हाइड्रोजन तो सिर्फ हाइड्रोजन है।
अब कोई तुमसे पूछे पीला रंग क्या है? तो अब क्या खाक कहोगे कि पीला रंग क्या है! पीला रंग यानी पीला रंग। हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन । अब कहना क्या है? मगर यह कोई उत्तर हुआ कि हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन ?
नहीं, विज्ञान भी कोई उत्तर देता नही; थोड़ी दूर जाता है, फिर ठिठक कर खड़ा हो जाता है। सब शास्त्र थोडी दूर जाते हैं, फिर ठिठक कर गिर जाते हैं। मनुष्य की क्षमता सीमित है और असीम है जीवन - जाना कैसे जा सकता है! इसलिए जिसने जान लिया कि नहीं जानता, वही ज्ञानी है।
तो घबराओ मत। स्वीकार करो। स्वीकार से ही विसर्जन है। मूल्य - मुक्त कर ले चल मुझको तू अमूल्य की ओर
संशय-निश्चय दोनों दुविधा, इनसे परे विकास मृगमरीचिका क्षितिज, स्वयं की सीमा है आकाश समय समय है भोले दृग की छलना संध्या- भोर