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पर पत्थर रख गए।
अब मैं देखता हूं. तुम अपनी पत्नी को प्रेम भी करते हो और साथ में यह भी सोचते हो कि इसी के कारण नर्क में पड़ा हूं! अब यह प्रेम भी संभव नहीं हो पाता क्योंकि जिसके कारण तुम नर्क में पड़े हो उसके साथ प्रेम कैसे होगा! तुम पत्नी को गले भी लगाते हों - स्व हाथ से गले लगा रहे, दूसरे से हटा रहे हो। तृप्ति भी नहीं मिलती गले लगाने से । तृप्ति मिल जाती तो पार हो जाते। तृप्ति मिलती नहीं, क्योंकि गले कभी पूरा लगा नहीं पाते बीच में साधु-संत खड़े हैं। तुम पत्नी को गले लगा रहे हो, बीच में साधु-संत खड़े हैं। वे कह रहे हैं : 'यह क्या कर रहे हो? दुष्कर्म हो रहा है।' तो उनके कारण कभी तुम पत्नी को पूरा गले भी नहीं लगा पाते। और जिसने पत्नी को पूरा गले नहीं लगाया, वह कभी स्त्री से मुक्त न हो सकेगा ।
मुक्त हमारी होती है ज्ञान से जो भी जान लिया जाता है, उससे हम मुक्त हो जाते हैं। जान लो ठीक से। और जानने के लिए जरूरी है कि अनुभव कर लो। और अनुभव में जितने गहरे जा सको, चले जाओ। अनुभव को पूरा का पूरा जान लो । जानते ही मुक्त हो जाओगे फिर कुछ जानने को बचेगा नहीं। जब जानने को कुछ भी नहीं बचता तो मुक्ति हो जाती है।
साधु-संतो के कारण ही तुम कामवासना से मुक्त नहीं हो पा रहे हो। और साधु-संतो के कारण ही तुम जीवन की बहुत-सी बातों से मुक्त नहीं हो पा रहे हो, क्योंकि वे तुम्हें जानने ही नहीं देते। वे तुम्हें अटकाये हुए हैं। वे तुम्हें उलझाये हुए हैं।
तो तुम पूछते हो कि 'साधु-संतो ने सदा से सदकर्म की प्रेरणा दी है.... । '
उन्हीं की प्रेरणा के कारण तुम भटके हो। मैं तो सिर्फ उनको सतपुरुष कहता हूं जिन्होंने साक्षी होने की प्रेरणा दी; सदकर्म की नहीं। क्योंकि सदकर्म में तो दुष्कर्म का भाव आ गया। सदकर्म में तो निंदा आ गई, मूल्य आ गया । मूल्य - मुक्त होने का जिन्होंने तुम्हें पाठ सिखाया, उन्हीं को मैं कहता हूं संत। अष्टावक्र को मैं कहता हूं संत । जनक को मैं कहता हूं संत। इनकी बात समझो। ये तो कहीं नहीं कह रहे कि क्या बुरा है, क्या भला है। ये तो इतना ही कह रहे हैं, जो भी है जैसा भी है, जाग कर देख लो। जागना एकमात्र बात मूल्य की है। कर्म नहीं- अकर्ता
भाव ।
हम कहते हैं बुरा न मानो यौवन मधुर सुनहली छाया सपना है, जादू है, छल है ऐसा पानी पर मिटती - बनती रेखा - सा मिट-मिट कर दुनिया देखे रोज तमाशा यह गुदगुदी यही बीमारी
मन हलसावे, छीजे काया
हम कहते हैं बुरा न मानो यौवन मधुर सुनहली छाया ।