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उठ रहा है? तुम्हारे पिता के मन में नहीं आता तो तुम कहां होते? इसमें बुरा कहां है? नैसर्गिक है। इससे पार हो जाना जरूर महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें बुरा कुछ भी नहीं है। इसमें पाप कुछ भी नहीं है; यह प्राकतिक है। इससे पार हो जाना जरूर महिमापर्ण है, क्योंकि प्रकृति के पार जो हुआ उसकी महिमा होनी ही चाहिए। तो जो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाए, उसकी महिमा है; जो न उपलब्ध हो सके, उसकी निंदा नहीं।
मेरी बात को ठीक से समझना। जो कामवासना में है, प्राकृतिक है, स्वस्थ है, सामान्य है; कोई निंदा की बात नहीं; जो होना चाहिए, वही हो रहा है। लेकिन जो कामवासना के पार होने लगा और बड़ी घटना घटने लगी, प्रकृति का और कोई ऊपर का नियम इसके जीवन में काम करने लगा। यह शुभ है। इसका स्वागत करना। मेरी दृष्टि में ऊपर की सीढ़ियों का स्वागत तो होना चाहिए, नीचे की सीढ़ियों की निंदा नहीं। क्योंकि निंदा का दुष्परिणाम होता है। नीचे की सीढ़ियों की निंदा करने से ऊपर की सीढ़ियां तो नहीं मिलतीं, नीचे की सीढ़ियों पर भी ऐसी कठिन विक्षिप्तता पैदा हो जाती है कि पार करना ही असंभव हो जाता है।
अगर तुमने कामवासना को सहज भाव से स्वीकार कर लिया, तुम एक दिन उसके पार हो जाओगे। साखी बनो! साक्षी बनो! रोओ- धोओ मत, चिल्लाओ मत! बुरा-भला मत कहो, गाली-गलौज मत बको! परमात्मा ने अगर कामवासना दी है तो कोई प्रयोजन होगा। निष्प्रयोजन कुछ भी नहीं हो सकता। उसने सभी को कामवासना दी है, तो जरूर कोई महत प्रयोजन होगा।
___और तुमने कभी सुना कोई नपुंसक कभी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है तुमने कभी यह बात सुनी? नहीं, क्योंकि वही काम-ऊर्जा बुद्धत्व बनती है। वही काम-ऊर्जा जब धीरे-धीरे वासना से मुक्त होती है, वही काम-ऊर्जा जब काम से मुक्त होती है, तो राम बन जाती है।
सोना मिट्टी में पड़ा है, खदान में पड़ा है। शुद्ध करना है, यह भी सच है। लेकिन मिट्टी से सने पड़े सोने की कोई निंदा नहीं है। यही ढंग है शुरू होने का। खदान से ही तो निकलेगा सोना। जब खदान से निकलेगा तो कचरा-कूड़ा भी मिला होगा। फिर आग से गुजारेंगे, कचरा-कूड़ा जल जाएगा; जो बचना है बच रहेगा।
जीवन की आग से अगर कोई साक्षीपूर्वक गुजरता रहे, तो जो -जो गलत है, अपने-आप विसर्जित हो जाता है, उससे लड़ना नहीं पड़ता।
तुम्हारे साधु-महात्माओं ने तुम्हारी फांसी लगा दी है। उन्होंने तुम्हें इतना घबरा दिया है-'सब पाप, सब गलत!' इस कारण तुम इतनी आत्मनिंदा से भर गए हो कि तुम्हारे जीवन में विषाद ही विषाद है और कहीं कोई सूरज की किरण दिखाई नहीं पड़ती।
जीवन को स्वीकार करो! जीवन प्रभु का है। जैसा उसने दिया, वैसा स्वीकार करो। और उस स्वीकार में से ही धीरे- धीरे तुम पाओगे, जागते-जागते जाग आती है और सब रूपांतरित हो जाता है। तुम्हारे साधु-संतो ने तुम्हें दुष्कर्मों से मुक्त नहीं किया है, तुम्हें सिर्फ पापी होने का अपराधभाव दे दिया है। और अपराध- भाव जब पैदा हो जाए तो जीवन में बड़ी अड़चन हो जाती है छाती