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तो जो सत्ता में है वह अनुशासन वाले संत के पास जाता है, जो कहता है कि अनुशासन रखना बड़ा अच्छा है। और जो सत्ता में नहीं है वह क्रांतिकारी संत के पास जाता है, जो कहता है, 'तोड़-फोड़ कर डालो सब, मिटा डालो सब।' सत्ता में पहुंच कर यह भी संत को बदल लेगा। सत्ता में पहुंच कर यह भी अनुशासन वाले के पास जायेगा। और जो सत्ता में था, सत्ता से नीचे उतर आये तो वह भी उपद्रव में भरोसा करने लगेगा, तब उपद्रव का नाम क्रांति, उपद्रव का नाम प्रजातंत्र, लोकतंत्रअच्छे-अच्छे नाम! लेकिन इनका संतत्व से कुछ लेना-देना नहीं है।
या संत तुम्हें छोटे-मोटे जीवन के आचरण सिखाता है. 'अणुव्रत......| ऐसा मत करो, वैसा मत करो!' सुविधा सिखाता है जीवन की। नहीं, इनसे भी कुछ लेना-देना नहीं है। ये सामाजिक व्यवस्था के, सामाजिक सरमाये के हिस्सेदार हैं। वास्तविक संत तुमसे यह कहता ही नहीं कि तुम क्या करो। वास्तविक संत तो इतना ही कहता है कि तुम यह जान लो कि तुम कोन हो। फिर उस जानने के बाद जो होगा वही ठीक होगा और उसको न जानने से जो भी हो रहा है वही गलत होगा।
इस बात को खूब ठीक से समझ लेना। नासमझी की पूरी गुंजाइश है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप हमें बता दें, कि हम क्या करें? मैं उनसे कहता हूं मेरा तुम्हारे करने से कुछ लेना देना नहीं है। मैं तो इतना ही बता सकता हूं कि तुम कैसे जागो। मैं तो इतना ही बता सकता हूं कि तुम्हें कैसे पता चले कि तुम कोन हो! तुम्हें यह पता चल जाए कि तुम कोन हो, तुम्हें थोड़ा अंतस-साक्षात्कार हो जाए, तुम्हें जरा भीतर की चेतना का स्वाद लग जाए-बस फिर तुम जो करोगे वह ठीक होगा। फिर तुम गलत कर न सकोगे, क्योंकि गलत करने के लिए मूर्छा चाहिए।
इसको ऐसा समझें। तुम्हें अब तक अधिकतर यही समझाया गया है कि तुम ठीक करोगे तो संत हो जाओगे। मैं तुमसे कहता हूं : तुम संत हो जाओ तो तुमसे ठीक होने लगेगा। तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि तुम अगर सदाचरण करोगे तो तुम साधु हो जाओगे। मैं तुमसे कहता हूं तुम साधु हो जाओ, तुमसे सदाचरण होगा। सदाचरण बाहर है, साधुता भीतर है। जो भीतर है, उसे पहले लाना होगा। अंतःकरण बदले तो आचरण बदलता है। और अंतःकरण बदल जाने के बाद जो अपूर्व घटना घटती है, वही मूल्यवान है। तुम स्वच्छंद हो जाते हो और फिर भी तुम्हारे कारण किसी को कोई हानि नहीं होती। तुम अपने छंद से जीने लगते हो। तुम्हारा अपना राग, तुम्हारा अपना गीत, तुम्हारी अपनी धुन और फिर भी तुम्हारे कारण किसी को हानि नहीं होती!
अब ये दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं, जो दूसरों की हानि करते हैं; इनको तुम कहते हो दुष्कर्मी, पापी। और एक वे हैं जो दूसरों के हित में अपनी हानि करते हैं। इनको तुम कहते हो साधु -संत। इन दोनों में बहुत फर्क नहीं है। एक दूसरे को हानि पहुंचाता है और एक खुद को हानि पहुंचाता है-मगर दोनों हानि पहुंचाते हैं। मैं उसे संत कहता हूं जो किसी को हानि नहीं पहुंचात्ान किसी और को, न अपने को। ऐसी अपूर्व घटना जब घटती है तो ही धर्म की किरण उतरी। भीड़ को यह घटना नहीं घटती-नहीं घट सकती है।