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जल्दी से उल्टा हो जाता है करवट ले कर । महावीर आ रहे हैं, उनको तो काटा गड़ नहीं सकता; कोई पाप किया ही नहीं; फांसी फूल बन जाती है। गले में लगा फंदा फूल की माला हो जाता अगर महावीर को लगी होती। तो ईसा को कैसे महात्मा ! कठिन है।
ईसाई से पूछें। ईसाई कहता है : तुम्हारे ये महावीर और बुद्ध और ये सब... इनमें क्या रखा है ? इनको जीवन की कुछ पड़ी ही नहीं है। ये सब स्वार्थी हैं। बैठे हैं अपने-अपने झाड़ों के नीचे, अपना-अपना ध्यान कर रहे हैं। जीसस को देखो, सबके कल्याण के लिए चेष्टारत हैं और सबके कल्याण के लिए सूली लगवाने को तैयार हुए, क्योंकि सबकी मुक्ति इससे होगी ! अपना बलिदान दिया! ये महात्मा हैं, शहीद !
परिभाषाओं की बात है। लेकिन एक बात मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम बहुत गौर से देखोगे और सारी परिभाषाओं को हटा कर देखोगे तो सौ महात्माओं में कभी एक तुम्हें सच में महात्मा मालूम पड़ेगा। कोन महात्मा है? जिसका परमात्मा के हाथ में हाथ है - वही। बड़ा कठिन है उसे देखना। जब तक तुम हिंदू हो, तब तक तुम्हें हिंदू महात्मा को महात्मा मानने की वृत्ति रहेगी। जब तक जैन हो, तब तक जैन महात्मा को महात्मा मानने की वृत्ति रहेगी। ये पक्षपात तुम्हें महात्मा को पहचानने न देंगे। तुम सारे पक्षपात हटाओ, फिर आख खोल कर देखो। तुम चकित हो जाओगे. तुम्हारे सौ महात्माओं में से निन्यानबे तो राजनीतिज्ञ हैं और समाज की सेवा में तत्पर हैं। उनका काम वैसा ही है जैसा पुलिस वाले का है। वे समाज को ही सम्हालने में लगे हुए हैं। वह जो काम पुलिस वाला करता है, वही वे अच्छे ढंग से कर रहे हैं। जो मजिस्ट्रेट करता है वही तुम्हारा महात्मा भी कर रहा है । मजिस्ट्रेट कहता है, जेल भेज देंगे, महात्मा कहता है, नर्क जाओगे अगर पाप किया। महात्मा कहता
है : अगर पुण्य किया तो स्वर्ग मिलेगा। वे तुम्हारे लोभ और भय को उकसा रहे हैं।
तो
तुम जो कहते हो. 'आदिकाल से संत महापुरुषों ने सदकर्म की प्रेरणा दी है..... । ' पहले तो यह पक्का नहीं है कि उनमें से कितने संत महापुरुष हैं। और दूसरा सदकर्म की प्रेरणा ही असदकर्म की चुनौती छिपी हुई है। वास्तविक महात्मा कर्म की प्रेरणा ही नहीं देता वह तो अकर्ता होने की प्रेरणा देता है। इसे समझना। यही तो अष्टावक्र की गीता का सार है। वह यह नहीं कहा : अच्छा कर्म करो। वह कहता है : अकर्ता हो जाओ! कर्म तुमने किया नहीं, कर्म तुम कर नहीं रहे-ऐसे साक्षी - भाव में हो जाओ, साखी बनो ।
वास्तविक संत तो निरंतर यह कहता है कि कर्म तो परमात्मा का है, तुम्हारा है ही नहीं । तुम निमित्तमात्र हो! तुम देखते रहो। यह खेल प्रकृति और परमात्मा का चलने दो। यह छिया-छी चलने दो, तुम जागे देखते रहो। तुम इसमें पक्ष भी मत लो कि यह बुरा और यह अच्छा यह मैं करूंगा और यह मैं नहीं करूंगा। जो होता हो होने दो, तुम मात्र निर्विकार - भाव से देखते रहो। दर्पण की भांति तुममें प्रतिफलन बने, लेकिन कोई निर्णय न बने अच्छा-बुरा ।
वास्तविक महात्मा तो तुम्हें अकर्ता बनाता है। तुम जिनको महात्मा कहते हो, मैं भी समझ गया बात, वे तुम्हें सदकर्म की प्रेरणा देते हैं। सदकर्म का मतलब क्या होता है? जिसको समाज असदकर्म