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देखते हैं आप अस्पताल में टी. बी. से लेकर कैंसर तक की बीमारियां फैली हैं। अब अस्पताल में तो फैली ही रहेंगी, अस्पताल में न फैलेंगी तो कहां फैलेंगी? अस्पताल तो है ही इसीलिए। अस्पताल में कोई स्वस्थ लोग थोड़े ही रहेंगे! वहां तो बीमारियां ही रहेंगी। जो बीमारी में है वही तो अस्पताल में है। इसी को अगर तुम पूरब की मनीषा से पूछो तो पूरब की मनीषा कहती है: जो पाप में है वही तो भेजा जाता है संसार में। इनमें से कुछ थोड़े से लोग इस सत्य को समझ कर भीड़ के पार उठ जाते हैं, कमलवत हो जाते हैं। फिर दुबारा उनका आना नहीं होता।
यह संसार जिसको तुम कहते हो, अस्पताल है पापियों के लिए। इसलिए तो भारत में हमने कभी आवागमन की आकांक्षा नहीं की। जो जानते हैं वे कहते हैं. 'हे प्रभु, आवागमन से छुडाओ! हे कुंभकार, अब इस मिट्टी को मुक्त करो! तुम्हारे चाक पर घूम-घूम कर हम थक गए। अब छुट्टी दो। मोक्ष का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि देख लिया बहुत यहां रोग ही रोग हैं, इस पार रोग ही पलते है-अब उस पार वापिस बुला लो!
यह तो किसी व्यक्ति को दिखाई पड़ता है। भीड़ तो दौड़ी जाती है अंधों की भांति-लोभ में, धन में, पद में, मर्यादा में- भाग रही, दौड़ रही! इस भीड़ के बीच कोई एकाध छिटक पाता है। वह भी आश्चर्य है कि कोई कैसे छिटक पाता है। भीड़ का जाल बहुत मजबूत है। भीड़ अपने से बाहर किसी को हटने नहीं देती। भीड़ सब तरह से तुम्हारी छाती पर सवार है और गर्दन को पकड़े है।
कल ही एक मित्र पूछते थे कि ' आप कहते हैं निसर्ग से जीएं, सहजता से, स्वच्छंदता से। बड़ी मुश्किल है, क्योंकि फिर समाज है, राज्य है, अगर हम स्वच्छंद भाव से जीएं, अपने ही भीतर के छंद से जीएं, तो कई अड़चनें खड़ी होंगी।'
ठीक पूछते हैं। अड़चनें तो होने वाली हैं। वही अड़चन तपश्चर्या है। उनसे मैंने कहा : जहां तक बने अपने स्वभाव से जीयो और जहां ऐसा लगे कि जीना असंभव ही हो जाएगा वहां नाटक करो, वहां अभिनय करो, वहा गंभीरता से मत लो, वहां नाटक.......।
सम्यक-चेता व्यक्ति जीता सहजता से है। लेकिन चूंकि जीना भीड़ के साथ है और सभी भीड़ से भाग नहीं सकते... भागेंगे कहां! अगर सभी भाग गये तो वहीं भीड़ हो जायेगी। इसलिए कोई उपाय नहीं है। वहीं सब उपद्रव शुरू हो जायेंगे। जहां भीड़ है वहा उपद्रव है। और अकेले होने से भी उपद्रव मिट नहीं जाता। क्योंकि अगर भीड़ सिर्फ बाहर ही होती तो तुम जंगल चले जाते, उपद्रव मिट जाता। भीड़ तुम्हारे भीतर घुस गई है। तुम जंगल में भी जा कर हिंदू रहोगे तो भीड़ तो तुम्हारे भीतर घुस गई। तुम जंगल में भी जा कर राम का नाम लोगे या अल्लाह का नाम लोगे, तो भीड़ तुम्हारे भीतर घुस गई। तुम जंगल में भी बैठ कर अपने भीड़ के संस्कारों से थोड़े ही छट पाओगे। भीड़ बाहर होती तो बड़ा आसान था, भीड़ भीतर तक चली गई है। उसने तुम्हारे भीतर घर कर लिया है। इसलिए अब एक ही उपाय है : रहो भीड़ में जहां तक बने।
और नब्बे प्रतिशत तुम सहजता से जी सकते हो, दस प्रतिशत अड़चन होगी। उस अड़चन को नाटक और अभिनय मानना। उसको खेल समझना। जैसे कि रास्ते पर बायें चलो का नियम है, अब