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लो एक क्षण और बीता
हम हारे, युग जीता
होंठों के सारे गम
आंखों में कैद
चांदनी के सिर का
एक बाल और हुआ सफेद
धूप की नजर का
एक अंग और बढ़ गया
सपने के पैरों में
एक कांटा और गड़ गया
रोते रहे राम
अतीत में समा गई सीता
खतम हुई रामायण
अब शुरू करो गीता ।
लो एक क्षण और बीता हम हारे, युग जीता।
लेकिन चाहे रामायण खतम करो और चाहे गीता शुरू करो, सोये-सोये चला तो सब व्यर्थ चला जायेगा। सोया सो खोया, जागा सो पाया।
तो जब मैं पाठ की महिमा के लिए कहता हूं तो ध्यान रखना । मैं तो चाहता हूं तुम्हारा पूरा जीवन पाठ बने। गीता, कुरान, बाइबिल सुंदर हैं, लेकिन उतने से काम न चलेगा। जीवन तो एक अविच्छिन्न धारा है, घड़ी भर सुबह पाठ कर लिया और फिर तेईस घंटे भटके रहे, भूले रहे, बेहोश रहे-यह पाठ काम न आयेगा। यह तो ऐसा हुआ कि घर का एक कोना साफ कर लिया और सारा घर गंदा रहा, कूड़ा-कर्कट उड़ता रहा यह कोना कहीं साफ रहेगा? यह तो ऐसा हुआ कि सारा शरीर तो गंदा रहा, मुंह पर पानी के छींटे मार लिए, मुंह साफ-सुथरा कर लिया। यह कुछ धोखा दूसरे को दे रहे हो वह दे दो; यह खुद को धोखा काम न आयेगा ।
धर्म तो अविच्छिन्न धारा बननी चाहिए। सुबह उठे तो उठने में होश । स्नान किया तो स्नान में होश। फिर बैठ कर पूजा की, पाठ किया तो पाठ में, पूजा में होश । सुंदर कृत्य है। फिर दूकान गये तो दूकान पर होश। बाजार में रहे तो बाजार में होश । घर आये तो घर में होश । सोने लगे तो सोते आखिरी - आखिरी क्षण तक होश।
शुरू-शुरू में तो ऐसा रहेगा कि जागने में भी होश खो - खो जायेगा। कई बार पकड़ोगे, छूट-छूट जायेगा। मुट्ठी बंधेगी न बिखर - बिखर जायेगा। पारे जैसा है होश ; बांधो कि छितर- छितर जाता है।