________________
है, हम जहर भरते हैं उसमें. 'स्पहा! दौड़ो! प्रथम आओ!' और हम कहते हैं बच्चों से : 'मैत्री रखो, शत्रुता मत करो।' और शत्रुता सिखा रहे हैं-कह रहे हैं, प्रथम आओ! अब तीस बच्चे हैं, एक ही प्रथम आ सकता है। तो हर बच्चा उनतीस के खिलाफ लड़ रहा है और ऊपर-ऊपर धोखा दे रहा है मित्रत लेकिन जिनसे स्पर्धा है उनसे मित्रता कैसी! उनसे तो शत्रुता है। वे ही तो तुम्हारे बीच में बाधा हैं। फिर यही दौड़ बढ़ती चली जाती है। फिर हम कहते हैं. 'यह तुम्हारा देश, ये तुम्हारे बंधु, यह तुम्हारा समाज, यह मनुष्य-जाति-इन सबको प्रेम करो!' लेकिन खाक प्रेम संभव है! स्पृहा तो भीतर काम कर रही है, दौड़ तो पीछे चल रही है। तो आदमी शत्रु से तो डरा रहता ही है, जिनको तुम मित्र कहते हो, उनसे भी डरा रहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन नमाज पढ़ कर प्रार्थना कर रहा था मैं उसके घर पहुंच गया तो वह कह रहा था, 'हे प्रभु, शत्रुओं से तो मैं निपट लूंगा, मित्रों से तू बचाना।' बात जंची। मित्रों से बचना बडा कठिन है। मित्र यहां कोन हैं! ।
अडोल्फ हिटलर ने कभी किसी से मित्रता नहीं बनायी। कभी एक व्यक्ति को ऐसा मौका नहीं दिया कि उसके कंधे पर हाथ रख ले। इतने पास कभी किसी को नहीं आने दिया। कोई राजनीतिक बर्दाश्त नहीं करता किसी का पास आना। क्योंकि जो बहुत पास आ गया वही खतरनाक है। जो नंबर दो हो गया वही खतरनाक है।
माओत्से तुंग ने कभी किसी को नंबर दो नहीं होने दिया। तुम चकित होओगे। जो आदमी भी माओत्से तुंग के निकट आ गया उसी का पतन करवा दिया उसने। जैसे ही पता चला कि वह नंबर दो हुआ जा रहा है क्योंकि जो नंबर दो हुआ, वह जल्दी ही नंबर एक होना चाहेगा। खतरा नंबर दो से है। इसलिए जो व्यक्ति नंबर दो हुआ, माओत्से तुंग ने तत्थण उसको गिरवा दिया इसके पहले कि वह नंबर एक होने की चेष्टा करे।
इसलिए जितने महत्वपूर्ण व्यक्ति माओ के करीब थे, सब गिर गए; अब बिलकुल एक गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति माओ की जगह बैठ गया है, जिसका कोई मूल्य कभी न था।
यह आश्चर्य की बात है, लेकिन सभी राजनीतिज्ञ यही करते हैं। जितने करीब कोई आया है उतना ही खतरा है, उतनी ही तुम्हारी गर्दन दबा लेगा; किसी मौके-बे-मौके खींच लेगा। इसलिए कोई राजनीतिज्ञ अपने नीचे किसी को बड़ा नहीं होने देता-दूर रखता है। बताए रखता है कि तुम्हारी हैसीयत को खयाल रखना; जरा गड़बड़ की कि हटाए गए, कि बदले गए। राजनीतिक बदलते रहते हैं, कैबिनेट में वे हमेशा बदली करते रहते हैं-इधर –से हटाया उधर; किसी को कहीं जमने नहीं देते, कि कहीं कोई जम गया तो पीछे झंझट खड़ी होगी। इसलिए जमने किसी को मत दो। जब तक कोई गैर-जमा जमा है तब तक वह तुम पर निर्भर है, जैसे ही जम गया, तुम उस पर निर्भर हो जाओगे। इस जगत में स्पृहा के रहते मित्रता कहां संभव है!
जनक कहते हैं. यहां तो कोई स्पृहा न रही, अब क्या धन, क्या मित्र? और विषय-रूपी चोरों का अब क्या डर?