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जीवन मुक्त होना चाहिए-सब दिशाओं में, सब आयामों में। और कोई अनिवार्यता न हो। तब भी जीवन के काम जारी रहते हैं; उनके करने का कारण प्रमोद हो जाता है। तब एक आब्लैशन, अनिवार्यता नहीं रहती कि करना ही पड़ेगा; नहीं किया तो मुश्किल हो जाएगी, नहीं किया तो बेचैनी होगी। नहीं किया तो ठीक है, किया तो ठीक है। करना और न करना अब गंभीर कृत्य नहीं हैं।
'जब मेरी स्पृहा नष्ट हो गयी तब मेरे लिए कहां धन, कहा मित्र, कहां विषय -रूपी चोर हैं? कहां शास्त्र, कहां ज्ञान है?'
जनक राजमहल में बैठे हैं, सम्राट हैं और कहते हैं. 'जब मेरी स्पृहा नष्ट हो गयी, जब आकांक्षा न रही, अभीप्सा न रही, तो अब कहां धन, कहां मित्र, कहां विषय-रूपी चोर, कहां शास्त्र, कहा ज्ञान? - इसे समझने की कोशिश करना। धन छोड़ना सरल है; मगर धन छोड़ने से धन नहीं छूटता है। इधर धन छूटा तो कुछ और धन बना लोगे-पुण्य को धन बना लोगे। वही तुम्हारी संपदा हो जाएगी। स्पृहा छूटने से धन छूटता है। फिर पुण्य भी धन नहीं। स्पृहा छूटने से, वासना छूटने से सब छूट जाता है न कोई मित्र रह जाता है न कोई शत्रु।
तुम किसे मित्र कहते हो? जो तुम्हारी वासना में सहयोगी होता है, उसी को मित्र कहते हो न! शत्रु किसे कहते हो? जो तुम्हारी वासना में बाधा डालता है, तुम्हारे विस्तार में बाधा डालता है, तुम्हारे जीवन में अड़चनें खड़ी करता है-वह शत्रु; और जो सीढियां लगाता है, वह मित्र। और तुम्हारा जीवन क्या है? -वासना की एक दौड़!
इसलिए तो कहावत है कि जो वक्त पर काम आए वह दोस्त। वक्त पर काम आने का क्या मतलब? जब तुम्हारी वासना की दौड़ में कहीं अड़चन आती हो तो वह सहारा दे, कंधा दे। वक्त पर काम आए तो दोस्त। काम ही क्या है? कामना ही तो काम है। जनक कहते हैं. 'जब मेरी स्पृहा नष्ट हो गयी......।'
क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यव क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा।।
यदा मे स्पृहा गलित:......| जब मेरी गल गयी वासना, स्पृहा की दौड़, पाने की आकांक्षा; कुछ हो जाऊं, कुछ बन जाऊं, कुछ मिल जाए, ऐसा जब कुछ भी भाव न रहा; जो हूं, उसमें आनंदित हो गया; जैसा हूं उसमें आनंदित हो गया, तथ्य ही जब मेरे लिए एकमात्र सत्य हो गया; कुछ और होने की वासना न रही, तब-तदा मे क्व धनानि-फिर धन क्या? हो तो ठीक; न हो तो ठीक। है, तो खेल; न हो, तो खेल। क्व मित्राणि-फिर मित्र कैसे? कोई पास हुआ तो ठीक नहीं हुआ पास तो ठीक। निर्धन होकर भी स्पूहा से शून्य व्यक्ति बड़ा धनी होता है। बिना मित्रों के होकर भी सारा जगत उसका मित्र होता है। जिसकी स्पृहा नहीं रही उसका सभी कोई मित्र है-वृक्ष मित्र हैं, पशु-पक्षी मित्र हैं। स्पृहा से शत्रुता पैदा होती है। उसका परमात्मा मित्र है जिसकी स्पृहा न रही।
अब तुम देखना, हमारी सारी शिक्षण व्यवस्था स्पृहा की है। छोटा-सा बच्चा स्कूल में जाता