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सब पुदगल में है, सब पदार्थ में है। ऐसा जाग कर जो देखने लगता है उसके जीवन में क्रांति घटित होती है। फिर वह जो भी करता है - प्रमोदवश । बोलता है तो प्रमोदवश, चलता है तो प्रमोदवश | लेकिन कोई भी चीज की अनिवार्यता नहीं रह जाती। किसी भी चीज की मजबूरी नहीं रह जाती, असहाय अवस्था नहीं रह जाती।
एक व्यक्ति मित्र के घर से जाना चाहता था, लेकिन मित्र बातचीत में लगा है। तो उसने कहा : 'अब मुझे जाने दो। मुझे मेरे मनोवैज्ञानिक के पास जाना है और देर हुई जा रही है। उस मित्र ने कहा कि अगर दस-पंद्रह मिनट की देर भी हो गई तो ऐसे क्या परेशान हुए जा रहे हो उसने कहा 'तुम जानते नहीं मेरे मनोवैज्ञानिक को। अगर मैं न पहुंचा ठीक समय पर तो वह मेरे बिना ही मनोविश्लेषण शुरू कर देता है।' अनिवार्यता !
मैं एक विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था तो मेरे एक अध्यापक थे, बंगाली थे। ऐसे खूबी के आदमी थे, लेकिन अक्सर जैसे दार्शनिक होते हैं - झक्की थे। अकेला ही मैं उनका विद्यार्थी था, क्योंकि कोई उनकी क्लास में भरती भी न होता था। लेकिन मुझे वे जंचे। मुझे पता चला कि तीन-चार साल से कोई उनकी क्लास में आया ही नहीं है। मैं गया तो उन्होंने कहा. देखो, एक बात समझ लो । साधारणतः मुझे रस नहीं है विद्यार्थियों में, इसलिए तुम देखते हो कि विद्यार्थी आते भी नहीं हैं। लेकिन अब तुम आ गये हो कई साल बाद, ठीक, मगर एक बात खयाल रखना. जब मैं बोलना शुरू करता हूं तो घंटे के हिसाब से शुरू करता हूं लेकिन अंत घंटे के हिसाब से नहीं कर सकता। क्योंकि अंत का क्या हिसाब! घड़ी कैसे अंत को ला सकती है! जब मैं चुक जाता हूं तभी अंत होता है। तो कभी मैं दो घंटे भी बोलता हूं, कभी तीन घंटे भी बोलता हूं। तुम्हें अगर बीच-बीच में जाना हो, कि तुम्हें बाथरूम जाना हो कभी या बाहर कुछ काम आ गया या थक गए तो तुम चले जाना और चुपचाप चले आना । रखूंगा। मुझे बाधा मत देना । यह मत पूछना कि मैं बाहर जाना चाहता हूं इत्यादि । यह बीच में मुझे बाधा मत देना ।
मैं
मैं बड़ा चकित हुआ। पहले ही दिन मैंने जानने के लिए देखा कि क्या होता है। मैं चुपचाप उठ कर चला गया, वे बोलते ही रहे। मैं खिड़की के बाहर खड़े होकर सुनता रहा । वहा कोई नहीं क्लास में अब, लेकिन उन्होंने जारी रखा। वे जो कह रहे हैं, कहे चले जा रहे हैं। वह एक अनिवार्यता थी। धीरे- धीरे उनके मैं बहुत करीब आया तो मुझे पता चला कि जीवन भर वे अकेले रहे हैं- अविवाहित, मित्र नहीं, संगी-साथी कोई बनाये नहीं। अपने से ही बात करने की उन्हें आदत थी। बोलना एक अनिवार्यता हो गयी, एक बीमारी हो गयी। वे किसी के लिए नहीं बोल रहे थे। जब मैं भी वहा बैठा था तब मुझे साफ हो गया कि वे मेरे लिए नहीं बोल रहे हैं। उन्हें मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है। वे टेबल-कुर्सी से भी इसी तरह बोल सकते हैं। मैं निमित्त मात्र हूं बोलना अनिवार्यता है।
तुम जरा गौर करना। तुम्हारे जीवन में अगर अनिवार्यताए ही हों तो तुम मुक्त नहीं हो। अगर तुम चुप न हो सको तो तुम शब्द से बंध गए, शब्द की कारा में पड़ गए। अगर तुम बोल न सकी तो तुम मौन की कारा में पड़ गए, तो तुम मौन के गुलाम हो गए।