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बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते ऐसी ही परम ज्ञानी की अवस्था है। वह देख लेता है कि अपना ही खेल था; खेलना चाहे खेलता रह सकता था। लेकिन तब खेल बांधता नहीं; अपने ही घरों को अपने ही हाथ से भी गिराया जा सकता है; जिनके लिए लड़े थे, उनको खुद ही गिराया जा सकता है। परमात्मा खेल रहा है। पूछो 'क्यों खेल रहा है?' तो पूरब कहता : ऊर्जा का लक्षण ही यही है। ऊर्जा अभिव्यक्त होती है। ऊर्जा प्रगट होती है। गीत पैदा होता है, नाच पैदा होता है, फूल पैदा होते, पक्षी पैदा होते । यह परमात्मा के जीवित होने का लक्षण है। ये फूल नहीं हैं, ये वृक्ष नहीं हैं, यह तुम नहीं हो यहां यह परमात्मा अनेक- अनेक ऊर्मियों में, अनेक- अनेक लहरों में प्रगट हुआ है। यह उसके होने का लक्षण है। किसी कारण से यह नहीं हो रहा है। अगर फूल न हों, वृक्ष न हों, पौधे न हों, पक्षी न हों, आदमी न हों, चांद-तारे न हों, तो परमात्मा मरा हुआ होगा उसमें जीवन न होगा। ये जो सागर पर लहरें उठती हैं, यह सागर के जीवित होने का लक्षण है।
परमात्मा महाजीवन है । इसलिए तो वह अनंत रूपों में प्रगट हुआ। यह प्रगटीकरण किसी कारण से नहीं है। पक्षी सुबह गीत गाते हैं - अकारण । वृक्षों में फूल खिल जाते - अकारण । कभी तुम्हें भी लगता है कि तुम कुछ अकारण करते हो। जब तुम कुछ अकारण करते हो, तब तुम परमात्मा के निकटतम होते हो।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं. ध्यान अकारण करना । यह मत सोचना कि मन की शांति मिलेगी। बस मन की शांति मिलेगी, ऐसे खयाल से किया कि चूक गए व्यवसाय हो गया, धर्म न रहा। अकारण करना ! करने के मजे से करना ! स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा! गाना स्वांतः सुखाय । तुलसी से किसी ने पूछा होगा क्यों कही यह राम की कथा? तो तुलसी ने कहा किसी कारण नहीं - स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा । यह गाथा कहीं अपने आनंद के लिए |
कवि गीत गाता है, क्योंकि बिना गाए नहीं रह सकता । गीत उमड़ रहा है! जैसे मेघ से वर्षा होती है, ऐसा कवि बरसता है। संगीतज्ञ वीणा बजाता है, नर्तक नाचता है- ऊर्जा है!
रूस के एक बहुत प्रसिद्ध नर्तक निजिन्सकी से किसी ने पूछा कि तुम नाचते-नाचते थकते नहीं? उसने कहा : जब नहीं नाचता तब थक जाता हूं। जब नाचता हूं तब तो पर लग जाते हैं। जब नाचता हूं तभी तो मैं होता हूं। तभी मैं प्रगाढ़ रूप से होता हूं जब नहीं नाचता तब उदास हो जाता हूं। तब जीवन-ऊर्जा क्षीण हो जाती है। जब जीवन-ऊर्जा प्रगट होती है, तभी होती है।
ध्यान करना-स्वांतः सुखाय! कल कुछ मिलेगा, इसलिए नहीं; अभी करने में मजा है, प्रमोदवश! यह पहला सूत्र है : 'जो स्वभाव से शून्यचित है, वह प्रमोद से विषयों की भावना करता है।' खेल-खेल में! जनक यह कह रहे हैं कि वह भाग नहीं जाता संसार से। और अगर भागे भी तो भी प्रमोद में ही भागता है, गंभीर नहीं होता है। यह साधु का परम लक्षण है कि वह गंभीर नहीं होता । और तुम साधु-महात्मा को पाओगे सदा गंभीर, जैसे कोई भारी काम कर रहा है। तुमने परमात्मा को कहीं गंभीर देखा है? मगर महात्मा को सदा गंभीर पाओगे। महात्मा ऐसा कर रहा है जैसे कि भारी काम कर रहा है! तप कर रहा है, पूजा कर रहा है, प्रार्थना कर रहा है। सब कर्तव्य मालूम होता है,