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पता होता है। साधारण जन को पता होता है। सुबह उठ कर तुम कहते हो. 'अरे, खूब सपना देखा! बात खतम हो गई। फिर ऐसा थोड़े ही है कि सपने में देखी चीजों का तुम अभी भी हिसाब रखते हो!
मैंने सना है कि मल्ला नसरुद्दीन ने एक रात सपना देखा। सपना देखा कि कोई उससे कह रहा है. कितने रुपए चाहिए, ले ले! मुल्ला ने कहा. सौ रुपए। वह आवाज आई। उसने कहा कि निन्यानबे दूंगा। मुल्ला जिद पर अड़ गया कि सौ ही लूंगा। ऐसी जिदमजिद में नींद खुल गई। नींद खुल गई तो मुल्ला घबराया। देखा कि यह तो सपना था। जल्दी से आख बंद की और बोला. 'अच्छा निन्यानबे ही दे दो।' मगर अब तो बात गई। अब तुम लाख उपाय करो, अब तो बात गई। न कोई देने वाला है, न कोई लेने वाला है। अब लाख बंद करो, सपना टूटा सो टूटा।
तो न तो जैनों-बौद्धों की परिभाषा के अनुसार प्रमाद अर्थ हो सकता है, क्योंकि जो जाग गया, शून्यचित्त का जिसने अनुभव कर लिया, उस पर अब कोई छाया भी नहीं रह जाती सपने की, मूर्छा की, तंद्रा की। न हिंदू-अर्थों से अर्थ हो सकता है कि प्रारब्ध कर्मों के कारण.। जागा हुआ पुरुष जान लेता है कि अब तक जो हुआ जन्मों-जन्मों में, एक लंबा सपना था। अब तक जागे न थे तो था, अब जाग गए तो नहीं है। दोनों साथ-साथ नहीं होते।
यह तो ऐसा ही हो जाएगा जैसे कि मुल्ला किसी के घर नौकरी करता था। और मालिक ने कहा. 'बाहर जा कर देख नसरुद्दीन, सुबह हुई या नहीं?' नसरुद्दीन बाहर गया, फिर अंदर आया और लालटेन लेकर बाहर जाने लगा। तो मालिक ने पूछा. 'यह क्या कर रहा है?' उसने कहा 'बाहर बहुत अंधेरा है, दिखाई नहीं पड़ता कि सुबह हुई कि नहीं। तो लालटेन ले जा रहा हूं।
अब सुबह हो गई हो तो अंधेरा कहां रहता है? और लालटेन से कैसे देखोगे? सुबह हो गई तो हो गई। सुबह होने का अर्थ ही है कि अब अंधेरा नहीं है। सूरज उग आया, अंधेरा गया। तुम एक दीया जलाओ, फिर तुम कमरे में दीया जला कर खोजो अंधेरे को कि अभी तो था, अभी तो था; अब कहां गया! तुम द्वार-दरवाजे भी बंद कर रखो, तुम दरवाजे पर पहरेदार बिठा दो कि अंधेरे को निकलने मत देना, बाहर मत जाने देना। तुम सब तरफ से बिलकुल रंध्र रंध्र बंद कर दो। लेकिन जैसे ही तुम दीया जलाओगे कि देखें, अंधेरा कहां है-अंधेरा नहीं है। दीया और अंधेरा साथ -साथ तो नहीं हो सकते। रोशनी और अंधेरा साथ-साथ तो नहीं हो सकते।
जैसे ही कोई जागा, सब सपने गए। कितने ही सपने देखे हों जन्मों-जन्मों में कभी तुम सिंह थे और कभी बकरे थे, और कभी आदमी और कभी घोड़े और कभी पौधे-सब सपने थे; सब तुम्हारी मान्यताएं थीं। तुम उन में से कोई भी न थे। तुम तो द्रष्टा थे। कभी देखा कि घोड़े कभी देखा कि वृक्ष, कभी देखा कि आदमी, कभी औरत-ये सब रूप थे सपने में बने। कभी देखा चोर, कभी देखा साधु, कभी बैठे हैं बड़े शांत, कभी देखा कि बड़े अशांत हत्यारे-लेकिन ये सब सपने थे। जैसे ही जागे, एक ही झटके में सारे सपने समाप्त हो गए। तो अब कैसा प्रमाद! नहीं।
प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमोदाद्भावभावनः। निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरणे हि सः।।