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किनारा देख अंतिम बार पारावार से असहाय एकाकार भूलो लहर को प्रभु को पुकारों
जब आ जाए घड़ी, मन जब राजी हो-चूक मत जाना उस क्षण को।
बुद्ध कहते थे, एक राजमहल में एक अंधा आदमी बंद था। उस राजमहल में बहुत दवार थे। लेकिन सब दवार बंद थे, सिर्फ एक दवार राजा ने खुला छोड़ा था। वह अंधा आदमी निकलने के प्रयास करता है। वह टटोलता, टटोलता, टटोलता-लेकिन सब द्वार बंद। और जब वह खुले द्वार के करीब आया, तो उसके सिर में खुजलाहट आ गई तो वह सिर खुजलाने लगा निकल गया। फिर टटोलने लगा। फिर महीनों के श्रम के बाद फिर उस दवार पर आया, बड़ा महल, तब एक मक्खी उसके मुंह पर आ गई, तो वह मक्खी उड़ाने में लग गया, तब तक वह द्वार निकल गया। एक ही खुला द्वार, ऐसे हजार-हजार द्वार थे राजमहल में। लेकिन खुले द्वार पर जब आया, तभी कोई निमित्त, कारण बन गया। जीवन में करोड़ों क्षण हैं, किसी एक क्षण में तुम संन्यास के करीब होते हो। उस वक्त मक्खी मत उड़ाने लगना। उस वक्त सिर मत खुजलाने लगना। फिर वह दवार दुबारा आए न आए।
अब लहर नत शीश तिमिराच्छन्न अंतर सत्र अंग अंग सर्वथा निस्संग निर्धन हर तरह से हार अपना रिक्त हस्त पसार अपने मूक नयनों से किनारा देख अंतिम बार पारावार से असहाय एकाकार भूलो लहर को
प्रभु को पुकारो पूछा है, 'व्यक्तिगत रूप से आपसे अभी तक मिला नहीं, फिर भी आपके प्रति अजीब अनुभूतियों से भर जाता हूं। कभी रोता हूं कभी आपको निहारता रह जाता हूं।
शुभ लक्षण हैं। कहीं तालमेल बैठ रहा है। कहीं तुम्हारी धारा मेरी धारा के साथ बहने के लिए तैयार हो रही है। तुम राजी हो रहे हो पंख खोल कर उड़ने को। इसलिए नई-नई अनुभूतयों का उन्मेष होगा। डर मत जाना, क्योंकि नए से बड़ा भय लगता है। पुराने से तो हम परिचित होते हैं। परिचित से भय नहीं लगता। परिचित से चाहे दुख मिले, मगर भय नहीं लगता। इसलिए तो लोग इतने दुखी