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दिनांक 17 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना ।
सूत्र सार
जनक उवाच।
जगत उल्लास है परमात्मा का प्रवचन - सातवां
प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमादादभावभावनः । निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरणे हि सः ।। 12211
क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यवः ।
क्व शास्त्र क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा ।। 123।।
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे ।
नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम ।। 12411
अंतर्विकल्यशून्यस्य बहि: स्वच्छंदचारिणः । भ्रांतस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते।। 125।।
आज के सूत्र महावाक्य हैं, साधारण वक्तव्य नहीं है, असाधारण गहराई में पाए गए मोती हैं। बहुत ध्यानपूर्वक समझोगे तो ही समझ पाओगे। और फिर भी समझ बौद्धिक ही रहेगी। जब तक जीवन में प्रयोग न हो तब तक ऊपर-ऊपर से समझ लोगे, लेकिन अंतःकरण तक इन शब्दों की ध्वनि नहीं गज पाएगी। ये शब्द ऐसे हैं कि तभी जान सकोगे जब अनुभव में आ जाएं।
लेकिन फिर भी बौद्धिक रूप से समझ लेना भी उपयोगी होगा। बौद्धिक रूप से भी तभी समझ सकोगे जब बहुत ध्यान से बारीकी से । नाजुक हैं ये वक्तव्य । जरा यहां-वहां चूके कि भूल हो जाएगी। और इनकी गलत व्याख्या बड़ी सरल है।
पहला सूत्र : 'जो स्वभाव से शून्यचित्त है, पर प्रमाद से विषयों की भावना करता है और सोता हुआ भी जागते के समान है वह पुरुष संसार से मुक्त है।
वडर है कि तुमसे भूल हो जाए, अष्टावक्र की गीता में अनेक जगह गलत पाठ उपलब्ध है इस पहले सूत्र का। यह जो मैंने अभी अनुवाद किया, यह गलत अनुवाद है । प्रमाद जहां कहा गया है वहा 'प्रमोद' होना चाहिए। लेकिन जिसने ये संग्रह किये होंगे उसे लगा होगा कि प्रमोद तो ठीक शब्द नहीं, प्रमाद ठीक शब्द है। प्रमाद गलत शब्द है यहां। जो स्वभाव से शून्यचित्त है उसे प्रमाद