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लगना, अन्यथा अड़चन पड़ जाएगी। अब ऐसा मत करना कि कल तुम बिलकुल जम कर बैठ जाओ कि आज और हो, और गहरा हो-तो चूक जाओगे। यह तो हो ही रहा है। तुम इसमें बीच में मत आना, तम इसकी आकांक्षा भी मत करना: तम इसकी प्रतीक्षा भी मत करना, अपेक्षा भी मत करना तो यह गहरा होता जाएगा। अगर तुमने इसकी अपेक्षा की और तुम प्रतीक्षा करने लगे तो बुद्धि आ गई, हिसाब आ गया, अड़चन आ गई। फिर तुम अचानक पाओगे कि अब वह बात नहीं घटती। तुम्हारे घटाए घटती ही नहीं थी।
यह प्रश्न तो तीन-चार दिन पुराना है, मैंने उत्तर नहीं दिया था। जान कर रोक रखा था कि होने दो कुछ देर और, रस और थोड़ा प्रगाढ़ हो जाने दो।
क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि मेरे कहने से तुम्हारे भीतर वासना जग जाए कि यह तो ठीक, अब और हो! जहां 'और' आया, मन आया। जहां मांग आई, मन आया। और जहां मांग आई, वहीं तुम भिखमंगे हुए वहीं भिखारी हुए, वहीं दीन-दुर्बल!
होते हैं क्षण जो देशकाल मुक्त हो जाते हैं। होते हैं, पर ऐसे क्षण हम कब दोहराते हैं? या क्या हम लाते हैं? उनका होना, जीना, भोगा जाना है स्वैर्सिद्ध, सब स्वत-मूर्त
हम इसीलिए तो गाते हैं। तो जब ग्गुनगुन आ जाए, गा लेना। जब ध्वनि पकड़ ले, डूब लेना, डुबकी ले लेना। जब न आए, तो तने बैठे प्रतीक्षा मत करना। हवा के झोंके हैं; जब आते हैं, आते हैं। ऐसे ही प्रभु के झोंके भी आते हैं। मनुष्य के हाथ में नहीं है खींच लाना। प्रसाद-रूप आते हैं।
बस इतना खयाल रहे। सब शुभ हो रहा है। मांग भर न बने। अन्यथा मनुष्य के मन की पुरानी आदत है, जिसमें. सुख मिलता है उसकी मांग पैदा हो जाती है। बस वहीं सब अड़चन हो जाती है। दोहराने की बात ही मत करना। जीवन में कोई अनुभव दोहराया नहीं जा सकता। होगा, बार-बार होगा; लेकिन तुम दोहराने की आकांक्षा मत करना। ज्यादा-ज्यादा होगा, लेकिन तुम दोहराने की आकांक्षा मत करना।
तुम तो जो प्रभु दे दे, उसे स्वीकार कर लेना। जिस दिन दे दे, धन्यवाद। जिस दिन न दे, उस दिन भी धन्यवाद। क्योंकि जिस दिन न दे, समझना कि आज आवश्यकता न थी, जरूरत न थी। जिस दिन दे, समझना जरूरत थी।
तीसरा प्रश्न :