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संन्यास: अभिनव का स्वागत-प्रवचन-छटवां
दिनांक 16 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना। प्रश्न सार:
पहला प्रश्न :
क्या प्रेम के दवारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है?
अम और सत्य दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना के दो पहलू है। सत्य को पा लो तो प्रेम
प्रगट हो जाता है। प्रेम को पा लो तो सत्य का साक्षात हो जाता है। या तो सत्य की खोज पर निकलो; मंजिल पर पहुंच कर पाओगे प्रेम के मंदिर में भी प्रवेश हो गया। खोजने निकले थे सत्य, मिल गया प्रेम भी साथ-साथ। या प्रेम की यात्रा करो। प्रेम के मंदिर पर पहुंचते ही सत्य भी मिल जाएगा। वे साथ-साथ हैं। प्रेम और सत्य परमात्मा के दो नाम हैं।
लेकिन दो तरह के व्यक्ति हैं जगत में। एक हैं, जिन्हें सत्य को पाना सुगम है; प्रेम परिणाम में मिलेगा। दूसरे हैं, जिन्हें प्रेम पाना सुगम, सत्य परिणाम में मिलेगा। इसलिए ज्ञान और भक्ति दो मौलिक मार्ग हैं। स्त्री और पुरुष दो मौलिक विभाजन हैं।
और जब मैं कहता हूं स्त्री और पुरुष तो बहुत रूढ़ अर्थों में मत पकड़ना। बहुत पुरुष हैं जिनके पास स्त्रियों जैसा प्रेम से भरा हृदय है। बहुत स्त्रियां हैं जिनके पास पुरुष जैसा सत्य को खोजने वाला तर्क है। अपनी पहचान ठीक से कर लेना। परमात्मा की पहचान तो पीछे होगी। अपनी पहचान ठीक से कर लेना। ऐसा कुछ मार्ग मत चुन लेना, जो तुम्हारे साथ रास न आता हो। जो तुम्हें सहज मालूम पड़े, वही तुम्हारा मार्ग है।
सत्य की खोज में जो अंतिम फल है, वहां 'तू मिट जाता हैं, 'मैं का विस्फोट होता है-अहं ब्रह्मास्मि, मैं ही ब्रह्म हूं और कोई ब्रह्म नहीं सत्य की खोज में 'पर' से मुक्त होना उपाय है।
___ ध्यान से सुनना, क्योंकि जो सत्य की खोज में उपाय है, वही प्रेम की खोज में बाधा है। और जो प्रेम की खोज में उपाय है, वही सत्य की खोज में बाधा है। दोनों भिन्न-भिन्न जगह से चल रहे हैं-जा रहे एक तरफ। जैसे कोई पश्चिम से चला भारत आने को, कोई पूरब से चला भारत आने को। तो जो इंग्लैंड से चला वह पूरब की तरफ आ रहा है, जो जापान से चला वह पश्चिम की तरफ जा रहा है। दोनों भारत आ रहे हैं। दोनों एक जगह पहुंचेंगे लेकिन जहां से चले हैं वह स्थान बड़ा