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कोरी की कोरी रहती। सौभाग्य और संयोग की बात कि एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी, जहां रुकना नहीं था गाड़ी को। सयोगवशांत रुकी, आमतौर से वहां रुकती न थी। कोई दूसरी ट्रेन निकलती थी, इसलिए रुक जाना पड़ा।
उस आदमी ने खिड़की से नीचे झांक कर देखा और उसके चेहरे पर रोशनी आ गई। उसकी आंखें जो अब तक खाली थीं, भर गईं। वह तो बिना कहे अपने साथियों को उतर गया नीचे। वह तो भागने लगा। उसके साथी उसके पीछे भागे। बोले, पागल हो गए हो? उसने कहा, पागल नहीं हो गया। अब तक पागल था, होश आ गया! यही मेरा गांव है। यह वृक्ष, कह स्टेशन...। मेरे पीछे आओ।
वह ठीक भागता हुआ गली कूचों में से अपने घर के द्वार पर पहुंच गया। उसने कहा यह मेरा घर है, वह मेरी मां रही।
ऐसा तुम्हारे सामने मैं शास्त्र खोलता चलता हूं। कभी अष्टावक्र कभी नारद, कभी महावीर, कभी बुद्ध, कभी सूफी, कभी हसीद, कभी झेन-सिर्फ इस आशा में कि जहां भी तुम्हारे स्वभाव का तालमेल खाएगा, किसी स्टेशन पर, तो तुम कहोगे : 'आ गया घर'। किसी स्टेशन पर तो तुम्हारी आंखों में रोशनी आ जाएगी, तुम दौड़ने लगोगे, तुम नाचने लगोगे। किसी जगह तो तुम्हें एकदम से पुलक, उमंग होगी.।
इसलिए बोल रहा हूं इतने पर क्योंकि मेरी मान्यता है कि दुनिया में जितने मार्ग हैं, उतने ही तरह के लोग हैं। ये दो तो मूल धाराएं हैं-ज्ञान की और प्रेम की। फिर प्रेम की छोटी धाराएं हैं, ज्ञान की छोटी धाराएं हैं।
प्रेम से निश्चित ही मार्ग जाता है, उतना साफ-सुथरा नहीं जैसा सत्य का मार्ग है। प्रेम का मार्ग तो बड़ा धुंधला-धुंधला है। वही उसका मजा भी है, वही उसका स्वाद भी है। सत्य का मार्ग तो ऐसा है जैसे दोपहर में सरज सिर पर खडा है, सब साफ-सुथरा। प्रेम का मार्ग तो ऐसा है, जैसे सांझ होने लगी, सूरज ढल गया, अभी तारे भी नहीं निकले, संध्याबेला है। इसलिए तो भक्त अपनी प्रार्थना को संध्या कहते हैं, पूजा को संध्या कहते हैं। भक्तों की भाषा का नाम संध्या- भाषा है- धुंधलीधुंधली,प्रेम रस पगी!
हा
सांझ के धुंधलके में एक राह खुलती है। एक राह, जिसकी उस छोर पर मदिम - मदिम एक दीप जलता है, एक लौ मचलती है। सांझ के धुंधलके में एक राह खुलती है।