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कर देता था। वह बड़ा बगावती हो गया था। मरने के दिन भी उसका शिष्य आया और उसने कहा कि अब तो कृपा करो, अब वापिस लौट आओ, तर्क इत्यादि छोड़ो। मैं तुम्हें जानता हूं।
गुरु ने आंख खोली और कहा कि क्या अब प्रभु मुझे क्षमा कर सकेगा? रोया और मर गया। दफनाने के दूसरे दिन ही लोग भागे आए और उसके शिष्य को कहा कि हद हो गयी, जिस बात से हम डरे थे वही हो रहा है, तुम्हारे गुरु की कब से लपटें निकल रही हैं। जैसे कि गुरु नर्क में पड़ा हो - कब्र से लपटें निकल रही हैं!
तो मेयर गया और उसने जा कर कहा कि देख......। एक चादर कब के ऊपर ढांक दी और कहा कि सुनो, अब बहुत हो गयी बगावत, अब आखिर तक परेशान न करो। रात भर शांति से सोए रहो; परमात्मा क्षमा कर देगा; परमात्मा मुक्ति देगा, शांति देगा। और अगर सुबह तक परमात्मा कुछ न करे तो मैं तुम्हें मुक्ति दूंगा, मैं तुम्हें शांत करूंगा !
कहते हैं ऊपर से एक आवाज आई कि मेयर, यह तू क्या कह रहा है? गुरु को और शिष्य मुक्त करेगा!
तो मेयर ने कहा : ही, मैं मुक्त करूंगा ! क्योंकि मैं जो भी हूं गुरु की ही छाया हूंं और अगर मैं इतना शुद्ध हृदय हूं तो मैं यह मान नहीं सकता कि मेरा गुरु अशुद्ध हो गया है। वह खेल खेल रहा है। उसने ही मुझे जगाया तो मैं यह तो मान ही नहीं सकता हूं कि वह सो गया है। वह खेल खेल रहा है। इसलिए मैं कहता हूं : या तो प्रभु तुझे समझ लेगा और अगर प्रभु की करुणा सूख गयी हो तो फिक्र मत कर सुबह आ कर मैं तुझे मुक्त करूंगा और शांत करूंगा।
जब एक शिष्य खिलता है तो गुरु फिर से मुक्त होता है। एक बार तो मुक्त हुआ था अपने कारण; अब हर शिष्य में जब भी फूल खिलता है तो गुरु फिर-फिर मुक्त होता है। जितने शिष्यों के फूल खिलने लगते हैं, गुरु उतनी बार मोक्ष का आस्वादन करने लगता है, उतनी बार मोक्ष का स्वाद लेने फ्ल? फ्ल को उपलब्ध हुए होंगे अष्टावक्रा क्योंकि ये सूत्र बड़े अनूठे हैं।
'सोते हुए मुझे हानि नहीं है और न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि है इसलिए मैं हानि और लाभ दोनों को छोड़ कर सुखपूर्वक स्थित हां'
स्वपतो नास्ति मे हानि: सिद्धिर्यत्नवतो न वा । नाशोल्लासौ विहायास्मादहमासे यथासुखम् ।।
'सोते हुए मुझे हानि नहीं है
सुनो! जनक कहते हैं: सोया हुआ भी मैं हूं तो वही हानि कैसी! भटका हुआ भी मैं हूं तो वही हानि कैसी! अंधेरी से अंधेरी रात में मैं हूं तो प्रकाश का ही अंग हानि कैसी ! संसार में खड़ा हुआ भी मैं हूं तो परमात्मा से जुड़ा हानि कैसी !
'सोते हुए मुझे हानि नहीं है और न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि है
प्रयत्न करने से सिद्धि का कोई संबंध नहीं, क्योंकि सिद्धि कोई बाहर से मिलने बाली बात थोड़े ही है, सिद्ध तो तुम पैदा हुए हो सिद्ध बुद्ध तुम पैदा हुए हो वह तुम्हारा स्वरूप है, स्वभाव है।