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जनक कहते हैं : 'समाधि - रहित मैं स्थित हूं!'
यह कह रहे हैं कि जैसे बीमारी होती है तो औषधि की जरूरत होती है। चित्त में विक्षेप
है तो ध्यान की जरूरत है।
अंग्रेजी में जो शब्द है ध्यान के लिए, मेडीटेशन, वह उसी धातु से आता है, जिससे अंग्रेजी का शब्द है मेडीसन । दोनों का मतलब औषधि होता है। मेडीसन शरीर के लिए औषधि है; और मेडीटेशन, आत्मा के लिए।
लेकिन जनक कहते हैं : आत्मा तो कभी रुग्ण हुई नहीं, तो वहां तो औषधि की कोई जरूरत नहीं है। मन तक औषधि काम कर सकती है। लेकिन तुम अगर समझो कि मैं मन के साथ एक हूं तो मन के साथ एकता तोड़ने के लिए औषधि की जरूरत है।
अगर तुम जाग कर इतना समझ लो कि मैं मन के साथ अलग हूं ही कभी जुड़ा ही नहीं - तो बात खतम हो गई, फिर औषधि की कोई जरूरत न रही।
आत्मा को ध्यान करने के कारण भी बंधन शेष रहता है, क्योंकि क्रिया जारी रहती है। तुम कहते हो, हम ध्यान कर रहे है तो कुछ करना जारी है। ध्यान तो अवस्था है न करने की । तुम कहते हो, हम समाधिस्थ हो गए तो जनक कहेंगे कि क्या कभी ऐसा भी था कि तुम समाधिस्थ नहीं थे? समाधि तो स्वभाव है। तो जो समाधि तुम बाहर से लगा लेते हो, किसी तरह आयोजन करके ' जुटा लेते हो, वह मन में ही रहेगी, मन के पार न जाएगी।
तो बहुत बार ऐसा होता है कि मन शांत होता है, हवाएं रुक जाती हैं और पानी पर लहरें नहीं होतीं - तब तुम्हें लगता है समाधि हो गई, बड़ा आनंद आ रहा है! मगर फिर लहरें आएंगी, फिर हवा आएगी - हवा पर तुम्हारा बस क्या है? फिर तरंगें उठेंगी, फिर सब शांति खो जाएगी।
जनक कहते हैं : समाधि तो तभी है जब समाधि के भी तुम पार चले जाओ। फिर तुम्हें कोई भी चीज अस्तव्यस्त न कर पाएगी ।
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।
-समाधि तो व्यवहार है। अगर मन विक्षिप्त है तो समाधि की जरूरत है। एवं विलोक्य नियमेवमेवाहमास्थित
- इस नियम को जान कर मैं तो अपने में स्थित हो गया, समाधि के पार स्थित हो गया। ये सूत्र ज्ञान के चरम सूत्र हैं, इनमें क्रिया की कोई भी जगह नहीं है। इनमें योग का कोई भी उपाय नहीं। कुछ करना नहीं है - यह सूत्र है आधारभूता सिर्फ, जो तुम हो, उसे जाग कर देख लेना है; कुछ करना नहीं है।
'अध्यास आदि के कारण विक्षेप होने पर समाधि का व्यवहार होता है। ऐसे नियम को देख कर समाधि-रहित मैं स्थित हो गया हूं!'
समाधि-रहित !
'हे प्रभु, हेय और उपादेय के वियोग से, वैसे ही हर्ष और विषाद के अभाव से, अब मैं जैसा