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नहीं कर पाया। इसलिए तो ज्ञानी मन के बाहर होने का उपाय करने लगे। समझदार मन के बाहर हो गए, क्योंकि उन्होंने देख लिया कि मन का स्वभाव ही सुखी होना नहीं है।
जनक कहते हैं: बड़े अदभुत दुख हैं-शरीर के, वाणी के, मन के! इसलिए मैं तीनों को त्याग कर, अपने में डूब कर, वहां खड़ा हो गया हूं न जहां मैं वाणी हूं, न शरीर, न मन। उस साक्षी- भाव में सुखपूर्वक स्थित हां
'किया हुआ कर्म कुछ भी वास्तव में आत्मकृत नहीं होता ऐसा यथार्थ विचार कर मैं जब जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है, उसको करके सुखपूर्वक स्थित हो'
आदमी धोखे दे रहा है अपने को। धोखों से कुछ बात मिटती नहीं, वहीं की वहीं बनी रहती है, धोखे देने की प्रक्रिया छोड़नी पड़े, तो ही बदलाहट होती है।
मैंने सुना, सुरता भाई रास्ता भूल गए। रात पड़ गई। एक पेडू पर चढ़ कर देखा कि दूर एक दीया जल रहा है। सीधे वहीं पहुंचे देखा कि खेतो में एक मकान है, बाहर एक चारपाई पड़ी है। वहीं बैठ गए। घर में पति-पत्नी बेहद कंजूस, बाहर मेहमान को देख कर भिन्नाए। योजना बनाई कि नकली लड़ाई करेंगे। पत्नी रोकी पति मारेगा। सो भीतर नकली लड़ाई शुरू हुई। एक हंगामा खड़ा कर दिया दोनों ने। सुरता भाई डर गए। कहीं उनकी पिटाई न हो जाए, सो चारपाई के नीचे जा छिपे। पति-पत्नी बाहर आए, मेहमान को वहा न देख कर बहुत खुश हुए पति बोला :'देख्या मन्ने कै मारा!' पत्नी ने कहा: 'मैं कै रोई, देख्या!' और चारपाई के नीचे से निकल कर सुरता भाई ने कहा: 'देख्या, मैं कै गया!'
कुछ फर्क नहीं पड़ता, धोखाधड़ी में चीजें वहीं की वहीं रहती हैं। तुम जरा लौट कर अपनी जिंदगी पर देखो। सब तरह के उपाय तुमने किए, सब तरह की धोखाधडिया की-कहीं कुछ बदला? आखिर में पाओगे, सुरता भाई निकल कर कहते हैं देख्या, मैं कै गया!' कुछ कहीं गया नहीं। सब वहीं का वहीं
| अधिक लोग जैसे पैदा होते हैं वैसे ही मर जाते हैं। उनके जीवन में रत्ती भर क्रांति घटित नहीं होती, कुछ बदलता नहीं। जीवन का पूरा अवसर ऐसे ही व्यर्थ चला जाता है।
ये सूत्र तो आत्मक्रांति के सूत्र हैं। "किया हुआ कर्म कुछ भी वास्तव में आत्मकृत नहीं है।'
समझना। कठिन बात है। जनक कह रहे हैं : तुम जो भी करते हो, वह तुम्हारा किया हुआ नहीं है। प्रकृति कर रही है। यह बड़ी कठिन बात है, लेकिन बड़ी सत्य है। इससे बड़ा और कोई सत्य नहीं। और इस सत्य को किसी न किसी दिन तुम्हें समझना ही पड़ेगा। भूख लगी तो शरीर को लगती है। फिर भोजन की जो खोज होती है वह भी शरीर ही करता है। बहुत-से-बहुत मन साथ देता है। मन तो शरीर का ही अंग है। मन और शरीर दो नहीं हैं। मन यानी सूक्ष्म शरीर और शरीर यानी स्थूल मन। वे एक ही चीज के दो हिस्से हैं। तो भूख लगी तो मन उपाय करता है-रोटी लाओ, भोजन बनाओ! माग लो कि कमाओ, हजार उपाय कर सकते हो। लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम्हारे चैतन्य का संबंध है, तुम बाहर ही हो।