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परीक्षा के तीन महीने पहले उन्होंने मुझसे कहा: तो अब इसकी परीक्षा हो ले। तो तुम मेरे घर आ जाओ। और मेरे घर ही रहो, ताकि मैं देखू तुम कुछ करते हो या नहीं।'
तीन महीने मैं उनके घर रहा। मैंने सब किताबें वगैरह बांध कर रख दीं। वे थोडे डरे भी। पांच-सात दिन बाद वे मुझसे बोले कि छोड़ो, इस झंझट में क्या रखा है! यह जिद ठीक नहीं। इसमें कहीं ऐसा न हो कि तुम नाहक खो बैठो।' मैंने कहा :'खोना है तो खोएमें। पाना है तो पाएंगे। मगर अब इसको बदलेंगे नहीं। अब ये किताबें मैं खोलने वाला नहीं।' महीना बीतते-बीतते तो वे बहुत घबड़ाने लगे। वे कहने लगे कि मुझे क्षमा करो, मैं अपनी बात वापिस लेता हूं लेकिन तुम पढ़ो- लिखो। मैंने कहा: आपके बात लेने न लेने का कोई सवाल नहीं है। वैसे भी मैं पढ़ने वाला नहीं था। कोई आपकी वजह से नहीं पढ़ रहा हूं यह सवाल नहीं है। जो मुझे करना था वही करने वाला था। और जो होना है, होगा।
परीक्षा जब बिलकुल करीब आ गई तो वे तो इतने घबड़ाने लगे कि मुझसे बोले कि ऐसा करो, मैं तुम्हें बताए देता हूं कि क्या क्या आ रहा है, कम से कम उतना......: । मैंने अपने जीवन में ऐसा कभी नहीं किया। लेकिन तुम पर मुझे दया आती है और हैरानी होती है कि तुम पागल तो नहीं हो' क्योंकि मैं पड़ा रहता घास पर उनके लान में, सोया रहता धूप में या वृक्षों की छाया में। तीन महीने मैंने किताब छई नहीं। मैंने कहा कि नहीं, आप बताओ भी तो भी कोई सार नहीं, क्योंकि मैं किताब उठाने वाला नहीं। मैं बिना किताब छए ही परीक्षा में आ रहा हूं।
आखिरी दिन रात तो उनसे न रहा गया। मैं कमरे में सोया था, कोई ग्यारह बजे रात उन्होंने खटका किया और कहा :'सुनो, यह रहा पेपर।' अब मैंने कहा कि देखो, आप अपने हाथ से सब खराब किये ले रहे हैं। अब तीन महीने गुजर गए, अब रात बची है; कल सुबह जो होगा, होगा। और इस पेपर का मैं करूंगा भी क्या? यह जान भी लूं कि क्या आ रहा है. यह तो सुबह मैं जान ही लूंगा, इसमें क्या ऐसी जल्दी है? पढ़ने वाला मैं नहीं हूं। तो अभी जान लूं कि सुबह जान लूं फर्क क्या पड़ेगा? बीच में मैं पढ़ने वाला नहीं हूं।
और जब मुझे गोल्ड मैडल मिला तो उनकी हालत देखने जैसी थी। वे नाचने लगे खुशी में। उन्होंने कहा कि हद हो गई! तो शायद तुम ठीक ही कहते हो कि जो होने वाला था, हो कर रहेगा। मगर मुझे अब भी भरोसा नहीं आता। यह हो गया, यह भी ठीक......:|
फिर वर्ष बीत गए, जब भी वे मुझे मिलते, कहते :'कहो, बताओ तो, किया कैसे? इसके पीछे राज क्या था?' मैं उनको कहता:' आपके घर रहा तीन महीने, आप जानते हैं, चौबीस घंटे आपकी आंख के सामने रहा। किताबें मैंने बंद करके चाबी आपको दे दी थी। किताबें कभी फिर आपके घर से मैं दुबारा लेने गया भी नहीं, वे अब भी आपके पास पड़ी हैं। फिर मैंने उन्हें उठा कर देखा भी नहीं। मैंने भी एक प्रयोग किया, मैंने भी एक दाव खेला कि जो होना होगा, होगा।
मगर उन्हें भरोसा न आया। आप भी बहुत बार बिना कुछ किए सफल हो जाएंगे तो भी भरोसा न आएगा; तो भी ऐसा