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यह राजनीतिज्ञ का जवाब है। राजनीतिज्ञ चिंता करता है कि तुम कहां जा रहे, क्योंकि सदा तुम्हारे आगे होना चाहता है। तुम जहां जा रहे, वहीं भाग कर आगे हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बाजार में अपने गधे पर बैठा जा रहा है- तेजी से भागा। किसी ने पूछा : 'नसरुद्दीन, कहां जा रहे हो?' उसने कहा: 'मुझसे मत पूछो, गधे से पूछ लो ।' लोगों ने कहा :'मतलब?' नसरुद्दीन ने कहा : गधा ही है! पहले मैं इसके साथ बड़ी झंझट में पड़ जाता था। बीच बाजार मैं मैं इसे कहीं ले जाना चाहता हूं, यह कहीं जाना चाहता है। फजीहत मेरी होती, यह तो गधा है ! लोग हंसते कि अरे, अपने गधे को भी काबू में नहीं रख पाते। तब से मैंने तरकीब सीख ली। बाजार में तो मैं इससे झंझट करता ही नहीं - यह जहां जाता है ! कम से कम बाजार में यह साख तो रहती है कि मालिक मैं हूं। जहां जाता है, मैं वहीं चला जाता हूं। भीड़ भाड़ में मैं इसको रोकता ही नहीं, क्योंकि गधा गधा है, भीड़-भाड़ में और अकड़ जाता है।'
तो नेता तो अनुयायी के पीछे चलता है। तुम्हारा महात्मा तुम्हारी अपेक्षाओं की शज्ञत करता है। मैं न महात्मा हूं न नेता। मुझे तुमसे कुछ भी अपेक्षा नहीं है और न मैं कोई तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने को हूं। मुझसे तो तुम्हारा कोई संबंध अगर है तो स्वतंत्रता का है। इसलिए तुम अगर पूछो कि क्यों? तुम इसके हकदार नहीं। मैं उत्तरदायी नहीं। मैंने तुमसे पूछ कर थोड़े ही कहा था, जो मैं तुमसे पूछ कर बंद करूं! और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि मैं किसी ?? फिर न शुरू करूंगा। कौन जाने !
'क्या अब आप हमारे भीतर परमात्मा की झलक नहीं देखते?'
परमात्मा की झलक एक बार दिखायी पड जाए तो फिर समाप्त नहीं होती। जो झलक दिखायी पड़ जाए और फिर दिखायी न पड़े, वह परमात्मा की नहीं। परमात्मा कोई सपना थोड़े ही है- अभी था, अभी खो गया ! परमात्मा शाश्वतता है। एक बार दिख गया तो दिख गया। नहीं, परमात्मा की झलक दिखायी पड़नी बंद नहीं हो गयी है; लेकिन कुछ और झलक दिखायी पड़ी और वह झलक यह थी कि तुम्हें मैंने देखा कि तुम बड़े मस्त हो जाते थे, जब मैं कहता था, तुम्हारे भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। तुम समझते थे कि तुम्हें प्रणाम कर रहा हूं तुम भूल करते थे। मैं कहता था, तुम्हारे भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। तुम समझते थे, तुम्हें प्रणाम कर रहा हूं। तुम गदगद हो जाते थे।
मेरे पास लोग आते थे, वे कहते थे कि जब आप यह कहते हैं कि तुम्हारे भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, तो बड़ा आनंद होता है! आनंद अहंकार की तृप्ति से होता होगा। क्योंकि तुम भलीभांति जानते हो कि तुम परमात्मा नहीं हो। अगर तुम जानते ही होते कि तुम परमात्मा हो तो तुम यहां आते किसलिए? मैं जानता हूं कि तुम परमात्मा हो तुम नहीं जानते कि तुम परमात्मा हो। मेरी तरफ से प्रणाम सच्चा था, तुम्हारी तरफ जा कर गलत हो जाता था तुम कुछ का कुछ समझ लेते थे। मैं तो परमात्मा को प्रणाम करता था, तुम समझते थे, तुम्हारे चरणों में प्रणाम अर्पित है। तुम्हारे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती थी।
जिसने पूछा है, उसकी भी अड़चन यही है, अब उसके अहंकार को तृप्ति नहीं मिल रही होगी ।