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खो जाएगी, राख ही राख रह जाएगी। और अगर तुम सहज बनने लगो तो तुम अचानक पाओगे परमात्मा को खोजने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता; तुम्हारी सहजता के ही झरोखे से किसी दिन परमात्मा भीतर उतर आता है। क्योंकि परमात्मा यानी सहजता ।
ज्ञात नहीं जाने किस द्वार से
कौन से प्रकार से मेरे गृह-कक्ष में
दुस्तर तिमिर दुर्ग दुर्गम विपक्ष में उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी
बीच से अंधेरे के हुए दो टूक
विस्मय - विमुग्ध मेरा मन पा गया अनंत धन!
तुम्हें पता भी न चलेगा कि कब किस अज्ञात क्षण में, बिना कोई खबर दिये अतिथि की भांति परमात्मा द्वार पर दस्तक दे देता है।
धर्म के इतने जाल की जरूरत नहीं है, अगर तुम सहज हो। क्योंकि सहज होना यानी स्वाभाविक होना, स्वाभाविक होना यानी धार्मिक होना। महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है बत्यु सहावो धम्मो! जो वस्तु का स्वभाव है, वही धर्म है। जैसे आग का धर्म है जलाना, पानी का धर्म है नीचे की तरफ कहना - ऐसा अगर मनुष्य भी अपने स्वभाव में जीने लगे तो बस हो गयी बात। कुछ करना नहीं है। सहज हो गये कि सब हो गया ।
राम जी, भले आए
ऐसे ही आधी की ओट में चले आए !
बिन बुलाए !
आए, पधारी!
सिर आंखों पर बंदना सकासे !
ऐसे ही एक दिन डोलता हुआ आ धमकूगा मैं
तुम्हारे दरबार में
औचक क्या ले सकोगे अपनी करुणा के पसार में?
राम जी, भले आए !
ऐसे ही आधी की ओट में चले आए !
बिन बुलाए
आए, पधारो!
सिर आंखों पर बंदना सकासे!
परमात्मा ऐसे ही आता है, चुपचाप, पगध्वनि भी सुनायी नहीं पड़ती। कोई शोरगुल नहीं होता। योग, तप–जप, कोई जरूरत नहीं पड़ती- अगर तुम सहज हो जाओ; अगर तुम शांत, आनंदमग्न जीने