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अचुनाव में अतिक्रमण-प्रवचन पांचवां दिनांक 15 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना। सूत्र: जनक उवाच।
अकिंचनभवं स्वास्थ्य कोयीनत्वेऽपि दुर्लभम्। त्यागदाने विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 115।। कुत्रायि खेदः कायस्थ जिह्वा कुत्रायि खिद्यते) मन: कुत्रापि तत्त्वक्ला पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।। 11611 कृतं किमपि नैव स्थादिति संचिक्क तत्वत:। यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वाउसे यथासुखम्। 117।। कर्मनैष्कर्म्यनिर्बधंभावा देहस्थ योगिनः। संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम्।। 118।। अर्थानौँ न मे स्थित्या नत्या वा शयनेन वा। तिष्ठन् गच्छन् स्वयंस्तस्मादहमासे यथासुखम्।। 119।। स्वयतो नास्ति मे हानि: सिद्धिर्यत्नवतो न वा। नाशोल्लासौ विहायास्मादहमासे यथासुखम्! 120।। सखादिरूपानियम भावेम्बालोक्य भरिश। शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 121।।
एक पुरानी यहूदी कथा है।
सिकंदर विश्व-विजय की यात्रा को निकला। अनेक देशों को जीतता हुआ, एक पहाड़ी कबीले के पास आया। उसे भी सिकंदर नै जीतना चाहा। जब हमला किया तो चकित हुआ| कबीले के नग्न लोग बैड -बाजे लेकर उसका स्वागत करने आए थे। थोड़ा सकुचाया भी। उसका इरादा तो हमले का था। वहा तो कोई लड़ने को तैयार ही न था। उस कबीले के लोगों के पास अस्त्र-शस्त्र थे ही नहीं। उन्होंने कभी अपने इतिहास में युद्ध जाना ही न था। वस्त्र भी उनके पास न थे। बड़े मकान भी उनके पास न थे-झोपड़े थे; उन झोपड़ों में कुछ भी न था। क्योंकि संग्रह की वृत्ति उन्होंने कभी पाली नहीं।
जहां संग्रह है वहां हिंसा होगी। जहां संग्रह है वहां युद्ध भी होगा। जहां मालकियत है वहां प्रतिस्पर्धा भी है।