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संकोच न किया, शिष्टाचार का खयाल न किया और मेरे घाव को उघाड़ दिया। अब मैं क्या करूं? ऐसी स्थिति में मैंने बहुत संन्यासियों को देखा है। कोई स्त्री से भाग गए हैं तो स्त्री की निंदा में लगे हैं; तब से उन्होंने स्त्री का पीछा नहीं छोड़ा, स्त्री की निंदा चल रही है। पहले प्रशंसा चलती थी, फिर निंदा चल रही है। पहले सौंदर्य - शतक चलता था, अब वैराग्य शतक चल रहा है। लेकिन शतक का आधार स्त्री है। पहले उसके सौदर्य के नख-शिख का वर्णन था, अब उसके शरीर में भरे मल-मूत्र का वर्णन चल रहा है। लेकिन बात वहीं अटकी है।
ध्यान रखना, जो स्त्री के नख-शिख का वर्णन कर रहा है कि आंखें कजरारी, कि आंखें मीन जैसी सुंदर, कि चेहरा गुलाब, कि कपोल गुलाब की पंखुरियों जैसे कोमल - इसमें, और जो कह रहा है कि भरा है मलमूत्र, गंदगी, हड्डी, मांस-मज्जा, मवाद, खून, जो इसकी चर्चा कर रहा है- इन दोनों बहुत भेद नहीं| ये एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं जरूर, मगर इन दोनों का रस स्त्री में उलझा है। इन दोनों से सावधान रहना। दोनों में से कोई भी संन्यस्त नहीं है। दोनों संसारी हैं।
'नहीं है कुछ भी, ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य है ।'
न तो स्त्री गुलाब का फूल है और न मल-मूत्र का ढेर । नहीं है कुछ भी । न तो
है और न धन कोई जहर है कि छूने से घबड़ा जाओ। नहीं है कुछ भी। न तो यह संसार इस योग्य है कि इसमें भोगो और न यह इस योग्य है कि इसे त्यागो और इससे भागो । नहीं है कुछ भी । स्वन्नवत है। 'ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य है वह कौपीन के धारण करने पर भी दुर्लभा इसलिए त्याग और ग्रहण दोनों को छोड़ कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूं'
अकिंचनभवं स्वास्थ्य कौपीनत्वेउपि दुर्लभम् । अस्मात् त्यागदाने विहाय ....... ।
- इसलिए मैंने त्याग को, ग्रहण को, दोनों को छोड़ दिया ।
इसमें छोड़ना नहीं है, खयाल रखना। यह सिर्फ भाषा का उपयोग है। क्योंकि जब त्याग भी छोड़ दिया तो छोड़ना कैसा ! इसका केवल इतना अर्थ है: मैं जाग गया। मुझे दिखायी पड़ गई बात कि त्याग भी वही है, भोग भी वही है । भोग ही जब शीर्षासन करने लगता है, त्याग मालूम पड़ता है। मगर बात वही है, जरा भी भेद नहीं है। दिखायी पड़ गया कि भोग और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मौलिक भेद नहीं है। जड़-मूल से क्रांति नहीं होती त्यागी की । त्यागी वही करने लगता है जो भोगी कर रहा है-उससे विपरीत करने लगता है।
तुम जरा त्यागी को देखो! तुम जो कर रहे हो वह उससे विपरीत कर रहा है। और तुम इसलिए उससे प्रभावित भी होते हो कि वह कीटों पर सोया है, तुम फूल बिछाते शैया पर इसी से तुम प्रभावित भी होते हो कि अरे, एक मैं हूं कि फूल बिछाता शैया पर तब भी नींद नहीं आती और एक देखो यह धन्यभागी, काटो की शैया पर सोया है! तुम जा कर चरण में सिर रखते हो। तुम्हारा सिर त्यागी के चरणों में झुकता है, क्योंकि त्यागी की भाषा तुम्हें समझ में आती है; वह तुम्हारी ही भाषा है। भेद नहीं है। तुम धन के लिए दीवाने हो, किसी ने धन को लात मार दी, तुम उसके चरण में गिर गए - तुमने